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________________ गुणों की शुद्धि व वृद्धि के उपाय नहीं किए तो | दुःख दिए नहीं, मैंने ही दुःख दिए, सब मेरे मिच्छामि दुक्कडं । जो कोई श्रावक धर्म की आराधना | उपकारी व मित्र है, किसी से मेरा अंश भी वैर में उच्च आराधना में प्रमाद किया, शक्ति होते | भाव नही; सर्व मित्रता को धारण करता हूँ । चार हुए भी अल्प किया, त्यागी जीवन को अपनाया | तीर्थ सदा ही मेरे मार्ग दर्शक हो; उपकारी हो, नहीं, संयम धारण नहीं किया, महाव्रत धारण नहीं | जो मैंने अविनय आशातना की, तो मिच्छामि किए, भिक्षाचरी, विहार, गुरूसेवा का लाभ नहीं | दुक्कडं । चार तीर्थ का सदा ही हित हो, कल्याण उठाया, परीषह उपसर्गो से भय माना, धैर्य साहस हो, मोक्ष हो - जीवन भर के एक एक करके सब स्थिरता को धारण नहीं किया, कर्मो के शीघ्र क्षय, पाप दोषों का चिंतन करते हुए मैनें उस उस अवसर प्रायश्चित में प्रमाद किया तो मिच्छामि दुक्कडं । पर यह यह सब अच्छा नहीं किया, पश्चाताप करता दुक्कराइं करित्ताणं, दुस्सहाइं सहितु य ।। हूँ, लज्जा धारण करता हूँ। आप अणंत ज्ञानी है | आप से कुछ भी छिपा नहीं हैं। केइऽत्य देवलोएसु, केइ सिझंति णीरया ।। . संथारा : महासाधना : न कि सूत्र दशवैकालिक || आत्महत्या । णिग्गंथं पावयणं सच्चं दुष्कर करनी करके, दुष्कर को सहन करके, कोई संथारा मंगल, संथारा महामंगल, देवलोक को जाते है व कोई कर्म रहित हो सिद्ध हो संथारा सच्चा सुख, मोक्ष मार्ग में जाते है। __महाक्रान्ति । हे भगवान! मैंने सर्व जीवन काल में, सम्यग तीर्थंकर भगवान के महा उपदेश को प्राप्त करके ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग चारित्र सम्यग् तप की संयम की साधना व संथारे की महासाधना से तीर्थंकर सर्व आराधना में किसी भी अतिचार का सेवन गोत्र का बंध करने वाली आत्माएं देव का भव और किया, पांच आचार के सर्व भेदों की आराधना में फिर मनुष्य का जन्म पाकर फिर से धर्म की आराधना दोष, प्रमाद, किया, कमी रखी तो मिच्छामि दुक्कड़ करती है व केवल ज्ञान रूपी सूर्य के महाप्रकाश से | धर्म के शुद्ध व्यवहार की साधर्मी व्यवहार की विराधना की, सम्यक्त्व की दृढ़ता, नियमों की दृढ़ता, महाप्रकाशित होकर लोक में सर्वोच्च पद तीर्थंकर पद उत्कृष्ट दृढ़ता को धारण नहीं किया तो मिच्छामि को प्राप्त करती हैं। वे तीर्थंकर भगवान तब अपने ही दुक्कडं । मैंने जो आपकी आज्ञा को जाना नहीं, केवल ज्ञान से जानकर जिस संयम व संथारे की समझा व माना नहीं, बहुत बहुत तत्व को जानने में पूर्व जन्म में साधना की थी, फिर से उसी का लोक निर्णय करने में प्रमाद किया, आपके अनंत सुखदायक में महाप्रकाश करती है व अपने ही समान नये लाखों वचनों की आराधना में कमी रखी, आपके सम्पूर्ण भाव-सूर्यों का निर्माण करती हैं। इस प्रकार संथारे धर्म की पूर्ण आराधना नहीं की, अल्प बहुत कमी की महासाधना का उद्योत पूर्व के अनंत काल में अनंत रखी, अंश भी कमी रखी, जिन प्रवचन रूपी सागर तीर्थंकर भगवान कर चुके है व भविष्य में अनंत तीर्थंकर के अथाह गहरे जल में सर्वकाल स्वयं को लीन नहीं भगवान करते रहेंगे । पांचो पांडव संयम की साधना रखा, तो मिच्छामि दुक्कड़ । अब चारों तीर्थों के | के साथ एक दो मास की कठिन तपस्या करते हुए साथ, सब सम्बंधियों, मित्रों, पड़ोसियों, चार | भगवान अरिष्टनेमि के दर्शनों के लिए विहार क्रम में :: गति के, 6 काय के सब जीवों के साथ, सिद्ध लीन थे कि भगवान अरिष्टनेमि के निर्वाण का समाचार भगवान के साथ खमाता हूँ। किसी ने कभी कोई । पाकर पारने के लिए आहार पानी का भी त्याग
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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