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________________ हत्या की तो जीवन भर तड़पता रह सकता 281. हिंसा का रौद्र रुप इसमें दिखता है। 252. रौद्र ध्यान में हिंसा में आनन्द मानना, 275. वत्तिया = धूल आदि से ढ़कना, किसी की आडम्बरों, भोजन में झूठन छोड़ना, इज्जत को मिट्टी में मिलाना, सभा में कहना वाहनो की तेज गति से त्रस जीवों की कि रहने दो, कैसे है? हम जानते है, अभी भयानक हिंसा होना। कहूँगा तो मुख दिखाने लायक, नहीं रहोगे? 283. हाथों से शरीर से काम लेने के बजाय कूड़े लेख आदि से अपयश रुपी धूल से, मशीनों का प्रयोग दिनों दिन बढ़ता जा रहा यश कीर्ति को ढकना। है, मशीन को दया करुणा आती है क्या? 276. लेसिया = मसलना। , लीख आदि को कभी नहीं वो तो जड़ है, हिंसा का वातावरण जीवों के शरीर आदि को इतना दबाना कि बढ़ता जा रहा है। कचूमर निकल जाये, दबाव से मन को 284. तस्स = उपरोक्त 10 विराधनाओं का, दबाना, प्रताड़ित करना, फिर लम्बे काल विराधना दुर्गति देती है, आराधना सुगति तक जी नहीं सके, भ्रूण हत्या तथा क्रुरता देती है। कठोरता से भरे व्यवहार करना. भाव हिंसा 285. मि = मेरे लिए, मिच्छा = (मिथ्या )निष्फल में रौद्र ध्यान के सहयोग से भाव हिंसा होवे, हृदय से पश्चाताप हो तो पाप निष्फल तथा क्लेश, मानसिक प्रताड़ना तथा तीखे हो जाते है। कठोर वचनों का प्रयोग करना। 286. सच्चे पश्चाताप से ही अपनी आत्मा को हल्का 277. उद्दविया = हैरान किये हो, भयभीत किये बना सकते है, सत्य पश्चाताप किया हो तो हो, त्रस जीवों को, पशु पक्षियों को, बैल (भावो से) अर्न्तमूहुर्त में नर से नारायण गायों को भयभीत किये हो। बन सकता है। 278. ठाणाओ ठाणं संकामिया = एक स्थान से | 287. दुक्कड़म् = दुष्कृत पाप अर्थात् यह दस दूसरे स्थान पर रखना, जीव जहाँ रहता प्रकार की विराधना ही पाप है, पाप का है वह स्थान छोड़ना नहीं चाहता परन्तु पश्चाताप इस पाठ का सार है। हम अपने स्वार्थ के लिए छुड़वाते है/छोड़ते 288. हमारे द्वारा सताये गये, दुःखित किये गये, प्रीति - मैत्री भाव को थोड़े से स्वार्थ या अहम 279. जबरदस्ती मकान खाली करवाना, उपकारियों में, अकड़ाई में, कठोरता युक्त जीवन जीते व प्रीति रखने वालों को भी स्थान छुड़वाना, रहना। हजारों बार “इच्छाकारेणं का पाठ" षड़यन्त्र व स्वभाव से (द्वेष से) इतना दुःख बोलकर कोमल या दयावान न बना तो समझना देना कि स्वयं ही यहाँ से निकल जायें। कि सामायिक आई ही नहीं, बाहरी दिखावा 280. जीवियाओ ववरोविआ = जीवन प्राणों से रहित करना, आरम्भिया - पाणाइवाइया | 289. इच्छाकारेणं - गिनते गिनते पश्चाताप के क्रियाएँ लगती ही है। आ जाये तो भी मंगलकारी ही
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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