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समझना। उन आँसूओं के साथ-साथ पाप भी धूल जायेंगे। “कड़काई ज्यादा अच्छी नहीं होती है।”
290. सुख भोग इन्द्रिय भोग और मैत्री करुणा के भाव दोनों अलग अलग है। जीवों के प्रति रिश्ते नाते श्रावको को निभाते रहना चाहिये, नरक में, देवों में तो सामायिक आती ही नहीं है, द्रव्य हिंसा की जनक तो भाव हिंसा ही है।
291. मैत्री प्रीतिमय, वात्सल्य दाता व उपकारी जनों की उपेक्षावृति अच्छी नहीं होती है। "जीव की उपेक्षा करना मानो स्वयं की ही उपेक्षा करना है।”
292. लम्बे काल तक जिनके साथ मधुर बोलना, उठना, बैठना साथ रहा हो और अचानक एक दम रिश्तों को तोड़ना, छोड़ना ये घोरातिघोर अपराध है, सत्य तो यह है कि आलोचना का पाठ (“ इच्छाकारेणं") अन्दर में उतरा ही नहीं; यह पाठ अन्दर 'उतरते ही टूटे-फूटे रिश्ते-नाते पुनः मैत्री से भर जायेंगे, मन प्रहलाद व उमंगआनन्द से भर जायेगा।
293. दबाव - अण बनाव, अन्य की इज्जत यश को धूल में मिलाना, रुखा रुखा व्यवहार रखना, स्वार्थ व गरज होने पर मीठी मीठी चिकनी बातें करना, माता-पिता-गुरुज्ञान दाता की सेवा से दूरी बनाये रखना, ये सब इच्छाकारेण के पाठ की दस विराधनाओं में आये हैं। बचो विराधना से । 294. शिष्य द्वारा गुरु के यश को धूमिल करना,
सेवा से जी चुराना तथा गुरु द्वारा शिष्यशिष्याओं के बीच में भेद तथा निरपेक्षता का अभाव होना, ये सभी दुर्लभ बोधि
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बनने तथा महामोहनीय कर्म बंध के कारण हैं। बिना इजाजत शिष्य - शिष्याओं को छीनना, घोर पाप है।
295. कोमलता आये बिना सामायिक आती ही नहीं है, जो संघ में भेद करावे, गुरु परम्परा व आगम परम्परा पर कुठाराघात करता है वह महामोहनीय कर्म बंध करता है।
296. एक इच्छाकारेण का पाठ बोलते-बोलते यदि भीतरी कठोरता नहीं टूटती है तो समझना चाहिये वो रौद्र ध्यानी है, रौद्र ध्यान नरक में जाने का प्रधान कारण है।
297. अनुकम्पा छोड़ना, मानो समकित रुपी रत्न को समुद्र में फैंककर किनारे पर बैठकर रो रहा है, दुःखी जीव पर अनुकंपा रखें। बिना मैत्री के धर्म-तप-पौषध सब फुटे घड़े में पानी भरने समान है।
298. इच्छाकारेणं कां इरियावहियं का एक कायोत्सर्ग केवलज्ञान दे सकता है, श्वेताम्बर परम्परा
वंता मुनि श्री की कथा में यही भाव है। एक 'इच्छाकारेणं' के भावों में कैवल्य ज्ञान होना, चमत्कार ही है।
299. श्रावक चर्या में “हक” अधिकार के लिए विराधनाएँ होती है। हक देने के बाद हक छीनना क्या उत्तम आचार है ?
300. परिग्रह आदि में हक कहने के बाद मुकर जाना, ठीक नहीं है। “हक की पीड़ा” मौत से भी भयानक होती है।
301. अपनी गलतियाँ समझने और सुधारने का
संदेश इच्छाकारेणं का पाठ देता है। गलतियाँ रुलाती भी है, रास्ता भी दिखाती है।