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करें।
302. तर्क और स्वार्थ ने इन पढ़े लिखे अज्ञानी | 310. वही साधक सामायिक क्षेत्र में प्रगति कर
(स्वार्थ व भौतिकता) डिग्री धारियों में जीव सकता है, जो पाप प्रवृति पर पश्चाताप दया सद्गुणों की घटोतरी बढ़ा दी है।
करता हो, तथा भविष्य में नहीं करने के 303. श्रद्धा व अर्थ सहित उच्चारण करते करते लिए विशेष सावधान रहता है।
(अभिहया आदि दस बोलों) आँखों में | 311. 'आलोचना' के द्वारा अपने संयम-धर्म' पश्चाताप के आँस आये बिना नहीं रह को पुनः स्वच्छ शुद्ध बनाया जाता है। सकेगें। दुःखी के आँसू पोंछना भी 'आलोचना' से पहले सरलता का जन्म मानवाचार है।
होता है। 304. जिन-जिन को मानसिक पीड़ा (टार्चर) दी, | 312. पाप मल से दूषित हृदय में सामायिक अर्थात् शब्दों की मर्यादा व शालीनता की बात छोड़ी,
समभाव की “सुवास" कभी नहीं आ सकती अधिकार छीने और मानसिक रुप से है। अतः पहले हृदय की दूषितता को दूर प्रताड़ना/तड़फाया इन सबका पश्चाताप सामायिक लेने से पहले आना चाहिये। (करेमि
313. पाप मर्छित हृदय. समभाव की ताजगी भंते के पहले)।
को नहीं पा सकता है। 305. सामायिक व पौषध जीवन में उतरने के बाद |
314. सामायिक वहीं आयेगी, जहाँ पहले आत्मा अण बनाव रह ही नहीं सकता है, अनुराग,
में पश्चाताप आये। रुचि व हर्ष ये तीन पहचान समकित की है। साधर्मिक-सहयोग बिना मैत्री-प्रीति के नहीं
315. एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय आदि की विराधना काया हो सकता है।
से नहीं होवे (इस पर पूरा पूरा ध्यान दिया
जाता है) परन्तु पंचेन्द्रिय पर कठोरता - 306. जीवों की विराधना से बचने का उपाय है
अणबनाव, दबाव से तथा मानसिक रुप "यतना"
से भाव हिंसा घटाने पर ध्यान क्यों नहीं 307. शास्त्रकार कहते हैं प्रवति-धर्म की प्ररुपणा
दिया जाता है। पंचेन्द्रिय की मानसिक के साथ-साथ सभी प्रवृतियों में यतना होवे। प्रताड़ना महादुःख है। विनय पूर्वक ही धर्म करावें।
316. आज की इस दौड़ा दौड़ी के युग में पंचेन्द्रिय 308. यतना = अर्थात्-विवेक जागृति। यतना करते के प्रति पारिवारिक जीवन में लूखापन,
हुए भी प्रमाद से जीवों की विराधना हुई तो स्वार्थ के पग पग पर, भाव हिंसा का उसका पश्चाताप उक्त पाठ में किया है। भयानक तांडव मचा हुआ है। पुण्यवान"जयणा य धम्म जणणी"
पंचेन्द्रिय ज्ञान से समझे तब ना??? 309. भूल होना कोई असाधारण कृत्य पीड़ा नहीं 317. सामायिक स्थानों (धर्म स्थानों) को मानो
है, परन्तु उन भूलों के प्रति उपेक्षित रहना, राजनैतिक अखाड़े बना रखे हैं। ego इगो उन्हें स्वीकार नहीं करना, किसी भी प्रकार की समस्या सभी झगड़ो की जड़ है। धर्म का पश्चाताप न करना। (खेद प्रकरन करना) तत्वों की ना समझ ने धर्मस्थानों को “कुरुभयंकर चीज है। सत्य के पक्ष में ही सदैव क्षेत्र" बना दिया है। साथ होना चाहिए।