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24 दण्डक को भी ऐसे ही मिश्र संग्रह मान सकते | चित्त की शुभ अथवा अशुभ भाव में एकाग्रता | उस
2 पदार्थ, क्रिया, भाव से चित्त को, मन को हटाकर सतरहवाँ मोती - लेश्या - जीव के शुभ अशुभ
केवल उस 2 पदार्थ क्रिया भाव में उपयोग पूर्वक
चित्त को लगाकर स्थिर करना, मर्यादा से बाहर न परिणाम जो द्रव्य लेश्या से सम्बंध कराते हैं । जो
जाने देना अथवा स्वतः उस 2 निमित्त में स्थिर हो द्रव्य आत्मा के साथ कर्म का बंध कराने में लेस, लेश्य द्रव्य, गोंद के रूप में कार्य करते है। पुद्गल
जाना । तीर्थंकर भगवान ने जिसे 'ध्यान' कहा है। द्रव्य लेश्या व परिणाम भाव लेश्या कहे जाते हैं। बीसवाँ मोती - द्रव्य - जिस पदार्थ की सत्ता है, जीव के उच्च-नीच, मंद-तीव्र, शुभ-अशुभ परिणामों अस्तित्व है, अपना स्वतन्त्र स्वरूप है, अपने विशेष के अनुरूप जिन पुद्गलों का वर्ण-गंध-रस-स्पर्श भी लक्षण, गुण व पर्याय जिसकी नास्ति नहीं होती, शुभ-अशुभ परिणाम होता है । जैसे काले द्रव्यों के जो सदा काल-सर्व काल रहता है। वह द्रव्य है । कारण क्रूर परिणाम तीव्र क्रोध मान आदि उत्पन्न जिसमें अपने गुण व पर्याय होते हैं, गुण व पर्याय होते है व इन क्रूर परिणामों के कारण आत्मा नये जिसके आश्रय से रहते हैं। जिसमें पुरानी पर्याय काले द्रव्य ग्रहण करती है, ग्रहण किए हुए द्रव्यों नष्ट होती है, नयी नयी पर्याय उत्पन्न होती है, के शुक्ल आदि शुभ वर्ण को भी काला करती है । जो सदा रहता है, कभी भी विनष्ट नहीं होता । शुभ भावों से काले नीले कापोती वर्ण के द्रव्यों के उत्पन्न होना, व्यय होना, सदा काल स्थिर रहना, शुक्ल आदि शुभ वर्ण को भी काला करती है । शुभ जिसका स्वभाव है। तीर्थंकर भगवान ने जिसे 'द्रव्य' भावों से काले नीले कापोती हो जाते है । इसी कहा है । नव तत्व में द्रव्य दो ही हैं, जीव, अजीव प्रकार गंध रस स्पर्श भी जानना । जिन द्रव्यों के शेष सातों उनकी भिन्न भिन्न पर्याय है । इन 25 परिणमन से मन वचन काय योग शुभ अशुभ होते | बोलों मे 20वां 21वां छोड़कर शेष सभी 23 बोल है व शुभ अशुभ योगों से जो द्रव्य शुभाशुभ परिणमते जीव अजीव की भिन्न भिन्न पर्यायों का ही विशेष हैं। तीर्थंकर भगवान ने लेश्या का जो स्वरूप कहा संग्रह है।
इक्कीसवाँ मोती - राशि - वस्तु का समूह, वस्तु अठारहवाँ मोती - दृष्टि - पदार्थ स्वरूप के प्रति का पुंज । एक समान गुण लक्षणों की अपेक्षा से जीव का अभिप्राय विशेष । जिणवाणी के प्रति, पदार्थों का संग्रह, पुंज, समूह । तीर्थंकर भगवान अन्य मतों धर्मों सिद्धान्तों, दर्शनों प्रवृत्तियों के प्रति ने जिसे राशि कहा है। सत्य, असत्य या मिश्र धारणा, विचार, अभिप्राय,
बाईसवाँ मोती - व्रत - जो आत्मा को विरति में संकल्प, श्रद्धा | तीर्थंकर भगवान की, उनके
स्थिर व दृढ़ करे | पापों का आंशिक त्याग, मर्यादा मुखारविंद से उत्पन्न वचनों की श्रद्धा, मान्यता,
की प्रतिज्ञा | पाप कार्यों की सीमा, असम्पूर्ण त्याग, उपेक्षा, लापरवाही, कुछ श्रद्धा, कुछ अश्रद्धा । जीव
अल्प या अधिक 'देश' त्याग की प्रतिज्ञा। जो महाव्रत का दर्शन मोह कर्म का क्षय, उपशम, क्षयोपशम,
से अल्प व तीर्थंकर भगवान द्वारा जैसा कथित है। उदय । तीर्थंकर भगवान ने जिसे दृष्टि कहा है।
तेईसवाँ मोती - महाव्रत - पापों के सम्पूर्ण, सर्व उन्नीसवाँ मोती - ध्यान मन का शुभ अशुभ चितन
उत्कृष्ट त्याग की प्रतिज्ञा । सर्व स्थूल व सूक्ष्म, | चित्त की एकाग्रता । इन्द्रियों व मन के निग्रह
पापों का उत्कृष्ट त्याग विकल्प 3 करण 3 योग से सहित (वश में करने का प्रयत्न विशेष) अथवा रहित