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________________ तीर्थंकर भगवान व केवल ज्ञानी, आत्मा की जिस | होने के विस्तृत विभाग अथवा पर्याय । उस 2 परम शुद्ध अवस्था को प्राप्त करते है, आत्मा की स्थान पर जन्म पाकर दण्ड भोगने के 24 स्थान सर्व दुख रहित अनंत सुख पर्याय, सर्व कर्म मल | समूह विभाग | चार गतियों के केवल विस्तृत भेद । रहित आत्मा की शुद्ध नीर समान अवस्था । तीर्थंकर | जन्म पर्याय व स्थान की अपेक्षा से संसारी जीवों के भगवान ने मोक्ष का जो स्वरूप कहा है | जले हुए । विभाग । जैसे कैद खाने में कोई- कोई तल गृहों बीज में अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं , इसी प्रकार | में, कोई ऊपर के कैदखानों में रखा जाता है, कर्म रहित आत्मा में फिर से कर्म नहीं आते । ईधन | कोई खुले में डाल दिया जाता है, किसी को पीड़ा रहित अग्नि नहीं जलती, इसी प्रकार कर्म रहित दी जाती है किसी को मंद, किसीको पीड़ा न देकर आत्मा भी वापस संसार में परिभ्रमण नहीं करती। केवल कैद में रख सुविधाएँ दी जाती है, किसी आत्मा की देहातीत, दुखातीत, परिभ्रमणातीत को एक ही स्थान पर बार बार दण्ड दिया जाता अवस्था को मोक्ष कहा हैं | है, किसी को घुमा घुमा कर अनेक स्थानों पर गाड़ दिया जाता है। इसी प्रकार जीव भी इस सम्पूर्ण पंद्रहवाँ मोती - आत्मा - जो स्व-गुणों में रमण लोक में जन्म व स्थान की अपेक्षा से अनेक विभागों करे वह आत्मा है | भिन्न भिन्न गुण की अपेक्षा में दण्डित होता है। वे 24 विभाग सुख दुःख रूप आत्मा की वह 2 पर्याय । जीव का स्वात्म-भाव, 24 दण्डक कहे जाते है | तीर्थंकर भगवान ने जीव की स्व-गुण पर्याय | जो ज्ञानादि पर्यायों में निरंतर गमन करे वह आत्मा है । आत्मा के पर्याय जिसे “दण्डक” कहा है। भेद, स्व-गुणों से उत्पन्न गुण पर्याय । जिनके आधार | विशेष - आगम में विस्तृत वर्णन को आसान शैली से स्व-योग्य क्रियाओं में जीव प्रवृत्त होता है । जिस मे लाने के लिए उसके अनेक छोटे छोटे विभाग प्रकार पक्षी के स्वाभाविक गुण उड़ान भरना, वृक्ष करके तत्व को समझाया गया है, इन विभागों को पर बैठना, चहचहाना आदि होते हैं, सिखाए जाने दण्डक कहा गया है । जो जीवों के तथा अजीवों के पर और भी अन्य गुण उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार भिन्न वर्णनों में प्रयुक्त हुआ है । जीवों के 24 विभाग आत्मा के स्वाभाविक गुणों व उत्पन्न होने योग्य | करके फिर उन पर बहुत सारा ज्ञान कहा गया है। विशेष गुणों को लक्ष्य करके आत्मा की भिन्न भिन्न लेश्या,योग वेद, कषाय, वेदना, कर्म आदि-2 पर्याय तीर्थंकर भगवान ने जिसे “आत्मा" कहा है भगवती सूत्र में शतक आठ में भी पुद्गल का । जीव की स्वाभाविक व विकास योग्य, गुण लक्ष्यी स्वरूप 1 दण्डक (विभाग) बनाकर कहा गया है। पर्याय विशेष एवं अन्य भी । दण्डक के समान ही गम व आलापक शब्दों का प्रयोग भी अनेक स्थानों पर है। इसलिए सोलहवाँ मोती - दण्डक जहाँ जीव अपने शुभ दण्डक का अर्थ विभाग ही विशेष प्रतीत होता है। अशुभ कर्मो का सुख-दुःख रूप फल पाते हैं । बहुत सारा ज्ञान विभाग रूप में कहने के लिए ही पहले बोल में कही गई चार गतियों के विस्तार से जीवों के विशेष 24 विभागों को 24 दण्डक कहा अनेक भेद । गमनागमन की अपेक्षा से कही गई गया प्रतीत होता है । इस प्रकार जन्म, स्थान, चार गतियों में दण्ड (कर्म फल) की अपेक्षा से 24 जन्म व स्थान दोनों दण्ड, विभाग की अपेक्षा से विस्तृत भेद अथवा विभाग । जन्म की अपेक्षा से यह सोलहवाँ बोल माना जा सकता है । जैसे आगम भिन्न भिन्न पर्यायों के विस्तृत वर्णन को आसान व 25 बोल का स्तोक भिन्न भिन्न भावों का संग्रह है, शैली में लाने के लिए उसके अनेक रूपों में दण्डित
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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