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प्रवृत्ति रूप अनेक खुले द्वारों से कर्म रूपी धूल का | कमरे में झाडु लगाकर कूड़ा बाहर करना व आत्मा आना । जो पुण्य, पाप दोनों रूप है । परन्तु | रूपी सिंह के समीप आए हुए कर्म रूपी गीदड़ों को आश्रव के 20 भेद अशुभ प्रवृत्ति की अपेक्षा से कह समता व तप की दहाड़ से दूर भगा देने के समान गए हैं । 18 पाप ही यहाँ भिन्न अपेक्षा से 20 जानना। भेदरूप कहे गए है। तीर्थंकर भगवान ने जिसे “आश्रव"
बंध - कर्मों का आत्मा में आश्रव होने पर आत्मा के कहा है।
प्रदेशों पर जम जाना, चिपक जाना, बंध जाना संवर - आश्रव का त्याग, आश्रव के कारणों का “बंध" तत्व का स्वरूप है । आत्म प्रदेशों के साथ त्याग करना संवर है। जिस क्रिया प्रवृत्ति से आत्मा कर्म पुद्गलों का दूध पानी समान लोह पिंड में में कर्मो का आगमन रूकता है, संवर द्वारा छिद्र | अग्नि समान, बूंदी के लड्डू में चीनी समान एकमेक दरवाजे बन्द होते हैं, कर्म आश्रव रूकता है । रूप हो जाना। आत्मा रूपी दीवार पर गीली मिट्टी कषाय, राग-द्वेष को मंद करना, योगों को वश में के गोले के समान कर्म पिण्डों का कर्म स्कन्धों का करना । आत्मा में आती हुई कर्म-धूल को, कर्म । चिपक जाना व पाप रूपी तेल से लिप्त रूपी वस्त्र चोरों को रोकना । तीर्थंकर भगवान ने संवर का जो को रेत में लोटाने से कर्म रूपी रेत का चिपक जाना स्वरूप कहा है । आत्मा रूपी तालाब मे भिन्न भिन्न । वास्तव में आत्मा और कर्मो का सम्बंध पहले तीन आश्रव द्वार रूपी नाली को बंद कर देने से कर्म दृष्टांतो के समान एकमेक रूप है, न कि सांप के रूपी जल का आना रूक जाता है | इसी प्रकार ऊपर उसकी केंचुली समान । आत्म प्रदेशों पर कर्म पूर्वोक्त सभी दृष्टांत जानना । .
पदगलों की जिस क्रिया से उन कर्मों में प्रकति निर्जरा - आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मो को आत्मा
स्थिति, अनुभाग उत्पन्न होते है उसे “बंध” कहते से अलग करना, दूर छिटकना । जो क्रिया या
है । तीर्थंकर भगवान ने जो स्वरूप बंध तत्व का
कहा है । जिससे आत्मा बंध जाती है, कैद हो प्रवृत्ति आत्मा में बंधे हुए कर्मों को छिन्न-भिन्न करती है, जर्जरित जीर्ण करती है, उनकी शक्ति को
जाती है, पराधीन हो जाती है वह आत्मा के साथ
कर्मो का बंध है। क्षीण करके गिरा देती है। कर्मों को अलग करतीकरती सर्व कर्मों से नाता तोड़ लेती है । जीव मोक्ष : सम्पूर्ण कर्मों का नाश होना ही मोक्ष है । सर्व रूपी मलिन वस्त्र को ज्ञान दर्शन रूपी जल से व कर्म पुद्गलों का आत्मा से सर्वथा अलग, दूर हो संयम तप रूपी क्षार से धोकर शुद्ध करना । तीर्थंकर जाना, सम्बन्ध विच्छेद हो जाना । आत्मा की भगवान ने निर्जरा का जो स्वरूप कहा है | पुण्य से सर्वथा शुद्ध अवस्था पूर्ण स्वतंत्र अवस्था । आत्मा पतित आत्मा ऊँची उठती है, संवर से शुद्धि के की स्व प्रदेशों पर कर्म बंध की सर्व शक्ति का पूर्ण मार्ग पर आती है व निर्जरा से ही विशेष वि-शुद्ध रूप से क्षय हो जाना । आत्मा का कर्मो की कैद होती है । कर्मो का फल भोगते हुए जो कर्म क्षय से, अनादि कालीन कैद से सर्वथा मुक्त हो जाना। होते हैं, यहां उनसे प्रयोजन नहीं, समता व तप से आत्मा की सिद्धि । कर्म जल का सर्वथा सूख जाना, जो प्रयत्न पूर्वक कर्म जीर्ण किए जाते है उससे कर्म रज का सर्वथा भस्म हो जाना । आत्मा रूपी प्रयोजन है । यही प्रशस्त निर्जरा, सकाम निर्जरा चन्दन के वृक्ष का शुक्ल ध्यान के चौथे पाए रूपी है, पहली अप्रशस्त अकाम निर्जरा है | नाव का मयूर के आने से सर्व कर्म रूपी सर्यों से मुक्त हो पानी बाहर निकालना, तालाब का पानी सूखाना, | जाना । आत्मा की सर्वकालीन पूर्ण मुक्ति । सभी