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________________ अजीव और उन दोनों के संयोग से उत्पन्न अर्थ | है । जीव का शुभ भाव, शुभ प्रवृत्ति । यह गुण सहित क्रिया भाव को तत्व कहते हैं। तीर्थंकर भगवान | अच्छा है, ऐसा जानकर उसका आदर करना, उस ने जिसे तत्व कहा है, आश्रव तत्व के भेदों में एक गुण का आचरण करना । दूसरों का दुःख जानकर भेद मिथ्यात्व है । मिथ्या भाव का कोई अस्तित्व अनुकंपा करना, दान-सेवा आदि प्रवृत्ति करना, नहीं होता, इसलिए उसका अर्थ भी नहीं होता वह गुणी का विनय व गुणगान करना । जिसे करना तत्व नहीं है। लेकिन मिथ्या भाव की श्रद्धा मिथ्यात्व कठिन है, जिससे आत्मा सुख उत्पादक कर्मो का है, मिथ्यात्व कर्म बंध का कारण है; मिथ्यात्व में बंध करती है, जिसका फळ सुख रूप है । जो ज्ञान का अस्तित्व रहित, अर्थ रहित । इनसे मिथ्यात्व आत्मा को पतन से बचाता है, धर्म में सहायी का व मिथ्यात्व को मिथ्या मानने से सम्यक्त्व का होता है, जिसके फल रूप में धर्म साधन, सुमित्र, ज्ञान होता है। निरोगता सुगति प्राप्त होती है । तीर्थंकर भगवान नवतत्व - जीव - जो जीता है वह जीव है । ने जिसे पुण्य कहा है । नदियों को जल से भरने वाली वर्षा के समान । जिसमे चेतना शक्ति होती है, जो सोचता है, चेतना जिसका लक्षण है, ज्ञान जिसका गुण है । जो जड़ पाप - जीव का अशुभ भाव, अशुभ प्रवृत्ति । अवगुण नहीं होता, चेतना व ज्ञान संज्ञा रहित नहीं होता । को, हिंसा आदि को अच्छा समझ उसका आदर जो पुण्य पाप का कर्ता है, पर्याप्ति व बल प्राण करना, अवगुण, हिंसा आदि का आचरण करना । धारण करता है, सुख दुःख का वेदन करता है, गुणीजनों के गुणों से द्वेष करना, किसी को दुःख जो संसार परिभ्रमण करता है व सिद्ध होता है। देना, दुःखी पर अनुकम्पा का विरोध भाव रखना। जिसमें मोह उत्पन्न होता है, पुरुषार्थ करता है, जिसे करना आसान है, जिससे आत्मा दुःख जिसमें सूझ-बूझ होती है । जो कर्म बांधता है, उत्पादक कर्मो का बंध करती है, जिसका फल कर्मो का फल भी पाता है, नारकी तिर्यंच मनुष्य देव दुःख रूप है । जो पुण्य से उल्टा है, आत्मा को व सिद्ध कहलाता है । जो देह का निर्माण करता है __ भारी करता है, मलिन करता है, पतन करता है, व उसका त्याग भी करता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र धर्म से दूर कराता है। जिससे धर्म मित्र की हानि के गुण धारण करता है, कर्म क्षय करता है, मुक्त होती है, रोग उत्पन्न होते हैं, साधन नष्ट होते हैं, होता है, तीर्थंकर भगवान ने जिसे जीव कहा है। दुर्गति प्राप्त होती है | तीर्थंकर भगवान ने जिसे अजीव - जो जड़ होता है, जिसमे चेतना नहीं पाप कहा है । विनाश लाने वाले भूकम्प व तूफान के समान । होती, ज्ञान संज्ञा नहीं होती, मोह उत्पन्न नहीं होता, पुण्य पाप नहीं करता, सुख दुःख का वेदन आश्रव - आत्मा में कर्मो का आना, जिस प्रवृत्ति से नहीं करता, जो न संसारी होता है न सिद्ध । आत्मा में कर्म आते है | मन वचन काय की वह जिसकी न इन्द्रियाँ होती हैं, जो बल प्राण धारण प्रवृत्ति जिससे आत्मा में कर्म रूपी धूल आती है | नहीं करता, जिसका इस लोक, पर लोक, भाव कषाय और योग में आत्मा की प्रवृत्ति । मिथ्यात्व, नहीं होता । तीर्थंकर भगवान ने जिसे “अजीव" राग, द्वेष आदि में आत्मा की प्रवृत्ति । धुले हुऐ वस्त्र कहा है । जीव से भिन्न को अजीव कहते हैं। रूपी आत्मा में सब छिद्रों से कर्म रूपी जल का आना । तालाब में भिन्न-भिन्न द्वारों से नालों से जल पुण्य - जो पवित्र है, आत्मा को पवित्र करता है, का आना । आत्मा रूपी कमरे में मिथ्यात्व आदि की उन्नत करता है, ऊँचा उठाता है, जो पाप से उल्टा
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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