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________________ ने गुणस्थान का जो स्वरूप कहा है । आत्म स्वभाव | छमस्थ को, अकेवली को जिन भगवान मानना में स्थिति के उच्च से उच्च स्थान । कर्म विशुद्धि | जिन भगवान छद्मस्थ होते हैं, केवली नहीं, व मार्गणा को गुणस्थान कहते हैं । छद्मस्थ को, अकेवली को जिन भगवान ने इसी बारहवाँ मोती - इन्द्रिय विषय व विकार - विषय, प्रकार फरमाया है, तो मुझे स्वीकार है, ऐसी श्रद्धा इन्द्रियाँ जिनको जानने में प्रवृत होती हैं; जिनको न करना | सत्य तर्क, शुद्ध तर्क, योग्य तर्क, ग्रहणकारी तर्क से जिन वचनों को स्वीकार न कर ग्रहण करती हैं, इन्द्रियों के अपने 2 विषय है । मिथ्या तर्कों का जाल बुनना, उनमें उलझना व इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य पदार्थो के गुण व पर्याय । पदार्थों के शब्द, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श । स्व-आत्म को विपरीत क्रम में डाले रखना । तीर्थंकर इन्द्रियों के माध्यम से आत्मा द्रव्यों के जिन गुणों व भगवान ने जिसे मिथ्यात्व कहा है। पर्यायों को जानने में उपयोग लगाती है। तीर्थंकर “तमेव सच्चं निसंकं जं जिणेहिं पवेइयं" - भगवती भगवान ने जिन्हें इन्द्रिय-विषय कहा है। सूत्र - जिन भगवान ने जो जो बात कही है, वे सब विकार : इन्द्रियों द्वारा ग्रहित शब्द आदि के प्रति पूर्ण रूप से शंका रहित व सत्य है । ऐसी श्रद्धा शुभ-अशुभ धारणा व राग द्वेष की परिणति इन्द्रियों सम्यक्त्व है । निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, यही द्वारा गृहित विषयों मे मोह के उदय से होने वाली वास्तविक अर्थ सहित है, परमार्थ है, शेष सब आत्मा की परिणति अर्थात् मिथ्या भ्रम | चारित्र असत्य अथवा असत्य मिश्रित होने से अनर्थों की मोह के उदय से इन्द्रियों के विषयों में होने वाला खान है । ऐसी श्रद्धा सम्यक्त्व है । यही आत्मा का आत्मा का मिथ्या भ्रम, तीर्थंकर भगवान ने जिसे अनमोल, सर्व श्रेष्ठ रत्न भाव रत्न है। जिन प्रवचन विकार कहा है। के अनुसार विचार, वचन, आचार की श्रद्धा, सम्यक्त्व है। जिनेश्वर भगवान के मुखारविन्द से उत्पन्न सर्व तेरहवाँ मोती - मिथ्यात्व - जिन भगवान की, वचनों की सर्व श्रद्धा होने पर परन्तु, सर्व वचनों का उनके वचनों की, उनके मुखारविन्द से उत्पन्न तत्व ज्ञान न होने पर अश्रद्धा मति की मंदता से या भूल की श्रद्धा न करना । सत्य को, तत्व को स्वीकार न हो जाने से कोई मिथ्या धारणा बनी हो तो वह कर असत्य को, अतत्व को मानना । सत्य में असत्य मिथ्यात्व ही नहीं, वह अज्ञान है । मिथ्यात्व भी का व असत्य में सत्य की श्रद्धा । सदेव-सगरू अज्ञान ही है, परन्तु जब तक केवल ज्ञान नहीं हो सधर्म को कदेव-कगरु-कधर्म-मानना व कदेव आदि जाता तब तक सम्यक्त्व के साथ छद्मस्थ भाव के तीनों को सुदेव आदि मानना । दर्शन-मोह कर्म के कारण ज्ञानावरणीय कर्म के कारण अल्पाधिक अज्ञान उदय से पदार्थों के प्रति होने वाला आत्मा का अवश्य रहता ही है । पूर्ण ज्ञान तो सिर्फ केवल ज्ञान मिथ्या भ्रम । पदार्थों के सत्य स्वरूप के प्रति, होने पर ही होता है | संसार परिभ्रमण का प्रथम आत्मा का मिथ्या श्रद्धान | जिणवाणी मिथ्या है, कारण मिथ्यात्व है व संसार परिभ्रमण के अंत का अथवा केवली भगवान का यह एक वचन मिथ्या है, प्रथम कारण सम्यक्त्व है। ऐसी श्रद्धा रखना । जिन भगवान ने यह एक वचन चौदहवां मोती - तत्व - जो जो वस्तु, क्रिया व गलत कहा, उनको इसका ज्ञान नहीं । भाव अर्थ सहित है, सत्य अर्थ सहित है। जिनका उनके सर्व वचनों की सर्व रूप से श्रद्धा न करना । । सद्भाव है, जिनका वास्तविक अर्थ होता है, जिनका जिन भगवान छमस्थ होते हैं, केवली नहीं व | अस्तित्व व स्वरूप होता है वह तत्व है । जीव
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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