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है। संसारी जीव द्वारा स्व प्रदेशों पर संचित पुद्गलों | लिए उन्मुख आत्मा की शक्ति विशेष । आत्मा की से निर्मित उसका निवास - गृह । आत्म - प्रदेशों | एकाग्रता शक्ति, चिंतन शक्ति, सत असत के निर्णय पर संचित भिन्न-2 पुद्गल वर्गणाओं के वह-2 समूह में, प्रश्न के समाधान में, अप्रमतत्ता, सावधानी में अथवा पिण्ड । संसारी आत्मा जिन पुद्गल समूहों लगने वाली शक्ति। श्रुत सागर में आत्मा रूपी से बद्ध रहती है, जिन भिन्न-2 पुद्गल पिण्डों की मच्छ द्वारा लगाए जाने वाले गोते की शक्ति विशेष कैद में रहती है | जीव को जो पगल-पिण्ड सबसे | | गुरुदेवों द्वारा दिए जाने वाले उपदेश में, श्रवण अतिप्रिय होता है। आत्म-प्रदेश पर संचित पद्गलों में लगने वाली आत्मा की शक्ति विशेष । तीर्थंकर के पिण्ड जो जीर्ण-शीर्ण, ह्रास-विकास स्वभाव | भगवान ने उपयोग का जो स्वरूप कहा है । शब्द वाले हैं जो ग्रहण किए जाते व त्यागे जाते हैं, हुए, आत्मा ने कभी ग्रहण किए, कभी नही । जिनको जिनके माध्यम से जीव अपने कर्मो का फल पाता ग्रहण किया - यह क्या शब्द था? कैसा शब्द था? है, मुक्ति निर्वाण से पूर्व आत्मा जिनका पूर्ण यह उपयोग गुण है। त्याग करती है। शरीर नाम कर्म के उदय से जीव
दसवाँ मोती-कर्म-कर्म स्वभाव जिसे प्राप्त करता है । तीर्थंकर भगवान ने जिसे
"कर्म" कहते हैं, कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को “शरीर” कहा है।
कर्म कहते हैं। संसारी जीव निरंतर जिसकी कैद आठवां मोती - योग - आत्म प्रदेशों का स्पंदन में रहते हैं। जो राग-द्वेष की परिणति के फल कम्पन परि-कंपन से आत्मा मन वचन काय तीनों स्वरूप आत्म-प्रदेशों पर बंध जाते हैं । जो आत्मा की भिन्न-2 प्रवृत्ति करती है | मन वचन काय के को सुख दुःख का अनुभव कराते हैं, साता असाता निमित्त से आत्म-प्रदेशों में होने वाला कंपन । कर्म उत्पन्न कराते हैं । आत्म-प्रदेशों पर संचित पुदगलों के क्षयोपशम से मन वचन काय के निमित्त आत्म में जो सबसे सूक्ष्म वर्गणा होती है। राग-द्वेष ज्ञान प्रदेशों में कंपन | मन वचन काय तीनों को योग "भाव कर्म" है, इनके निमित से होने वाला आत्मकहते हैं। अयोगी केवली जिन परिस्पंदनों को रोक प्रदेशों पर पुदगलों का बंध “द्रव्य कर्म' है । तीर्थंकर कर अयोगी होते हैं । तीर्थंकर भगवान ने योग का ने जिसे “कर्म" कहा है। जो स्वरूप कहा है। मन वचन काय के व्यापार को
ग्यारहवाँ मोती - गुणस्थान - मोक्ष मार्ग पर चलते योग कहते है।
हुए, आगे से आगे बढ़ते हुए, आत्मा के गुणों की शरीर पर्याप्ति से शरीर का निर्माण होता है, यही हीनता उच्चता प्रकट करने वाले अनेक स्तर अथवा काय है । काय की क्रिया के लिए आत्म-प्रदेशों में स्थान | मोक्ष मार्ग पर गतिमान जीव के ज्ञान दर्शन काय के भिन्न-2 भागों में भिन्न-2 कम्पन होना चारित्र के योग्य गुणों के भिन्न-2 स्तर अथवा स्थान काय योग है। उस क्रिया में लगने वाला बल, बल- | कर्म विशुद्धि मार्ग के उत्तरोत्तर विशुद्धि स्थान । प्राण है । मन की प्राप्ति, मन की क्रिया, क्रिया में | संसार से मुक्ति की ओर बढ़ते हुए जीव के क्रमिक बल क्रम, पर्याप्ति, योग बलप्राण है।
गुण - विकास स्थान | मोह की उत्तरोत्तर निवृत्ति व नौवां मोती - उपयोग - आत्मा की पदार्थों को
योगों की उत्तरोत्तर शुद्धि के भिन्न-2 स्थान | मोक्षजानने की शक्ति, सामान्य भी जानना, विशेष भी
मार्ग का गति क्रम | मोक्ष मार्ग पर चलते इस जीव
के विश्राम स्थान | मुक्त श्रेणी के पाए । मुक्तजानना | आत्मा का पदार्थों को सामान्य विशेष रूप से जानने का व्यापार | पदार्थो के ज्ञान के
श्रेणी चढ़ते जीव की स्थिति-स्थान, तीर्थंकर भगवान