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। 25 बोल परिभाषाए ) नाम कर्म" व "त्रस नाम कर्म' के उदय से उत्पन्न
जीव की पर्याय विशेष (त्रसकाय, स्थावर काय) पहला मोती - गति : जीव के जन्म स्थान । जहाँ
तीर्थंकर भगवान ने जिसे “काय' कहा है। जहाँ जीव जन्म पाते है । एक जन्म छोड़कर नया जन्म पाना । एक भव से दूसरे भव में जाना । जीव
चौथा मोती - इन्द्रिय - देह स्थित “ज्ञान के के भिन्न 2 जन्म स्थान समूह । जीव के जन्म
साधन'| आत्मा द्वारा पदार्थों के ज्ञान के, देहस्थान-समूह विभाग | जीव के गमनागमन के योग्य स्थित साधन संसारी जीव की पहचान के पौद्गलिक अथवा लोक-परिभ्रमण अथवा संसार परिभ्रमण के चिन्ह - कान, आँख आदि। ज्ञानावरणीय कर्म के भिन्न 2 स्थान समूह विभाग | गति नाम कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न इन्द्रिय लब्धि के फलस्वरूप उदय से उत्पन्न जीव की “गति-पर्याय' विशेष - प्राप्त देह-अंग, भिन्न-2 पुद्गल समूह आकार, देह नरक गति का जीव, मनुष्य गति का जीव आदि के चिन्ह, ज्ञान के साधन । इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण कर्मो के फल के अनुसार प्राप्त होने वाली जीव की करते हुए जीव जिनका निर्माण करता है । तीर्थंकर सुख दुःख रूप गति पर्याय, विशेष, तीर्थंकर भगवान भगवान ने जिसे “इन्द्रिय" कहा है । द्रव्य-इन्द्रिय ने जिसे गति कहा है। कर्म रहित नहीं: जीव की से गृहित जो ज्ञान आत्मा ग्रहण करती है, वह कर्म सहित पर्याय को लेकर यह पहला बोल है। | उसकी लब्धि-इन्द्रिय है। दूसरा मोती - जाति - एक, अनेक इन्द्रियों के
पाँचवा मोती - पर्याप्ति - जिस शक्ति से जीव आधार से जीवों के भेद, जीवों के समूह-विभाग ।
आहार योग्य पुदगलों को ग्रहण करता है व उनको एक समान इन्द्रियों वाले जीवों के भिन्न-2 समह । शरीर आदि रूप में परिणमाता है, श्वासोच्छवास जाति नाम कर्म के उदय से जीव जिस पर्याय की
भाषा, मन वर्गणाओं के पुद्गलों को ग्रहण कर क्रमश जिस अवस्था को, जिन लक्षणों को प्राप्त करता है
श्वासोच्छवास भाषा मन रूप में परिणमाता है । । यहाँ प्रतिकूल जाति वाली जाति से अभिप्राय नहीं
अपर्याप्त व पर्याप्त दोनों नाम कर्म के उदय से । जिस नाम कर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय,
उत्पन्न जीव की शक्ति अथवा लब्धि विशेष । तीर्थंकर बेइन्द्रिय आदि कहा जाए वह जाति है | तीर्थंकर भगवान ने जिसे “पर्याप्ति" कहा है। भगवान ने जाति का जो स्वरूप कहा है ।
छठा मोती - बल प्राण -जिस शक्ति से जीव तीसरा मोती-काय - जन्म के समय जीव शरीर शरीर में जीवित रहता है, जिसके वियोग से शरीर धारण करता है वही उसकी “काय” है | काय - एक
को छोड़ देता है, अर्थात मरण पाता है वह “बल समान प्रकृति व स्वभाव वाले शरीरों के भिन्न 2 | प्राण' रहते है |आयु बल प्राण विशेष है क्योंकि समूह अथवा समूह विभाग | अपकाय शीतल, | इसके होने पर ही अन्य इन्द्रियादि बल प्राण रहते तेजसकाय उष्ण, वायुकाय-हल्की, वनस्पतिकाय
है। जिस शक्ति से जीव जीवित रहता है व इन्द्रियोंके अनेक स्वभाव, त्रस काय - दुःख के स्थान से
उपयोग में, मन आदि की प्रवृत्ति में बल लगाता है, चलकर सूख के स्थान में जाने में समर्थ | पहली इस बल विशेष को बल-प्राण कहते है। आयु बल के पाँच त्रस लक्षण रहित “स्थावर' कहलाती है । साथ जीव के इन्द्रिय आदि बल को बल प्राण कहते भिन्न 2 प्रकृति, भिन्न 2 स्वभाव, त्रस लक्षण, स्थावर है। तीर्थंकर भगवान ने जिसे बल प्राण कहा है । लक्षण के आधार से शरीरों के कुल विभाग | "स्थावर | सातवाँ मोती-शरीर- जिसमें जीव जीवित रहता