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________________ त्याग । जो व्रत की अपेक्षा 'महा' है । तीर्थंकर | उत्तम विकास करें। आगमों में केवली भगवान का भगवान ने जिसे 'महाव्रत कहा है। दिया हुआ अनमोल ज्ञान है | वे भगवान सूर्य समान, सागर समान थे जबकि अपनी आत्मा एक चौबीसवाँ मोती - भांगे - विभाग रूप रचना । किरण के, एक बूंद के एक अंश समान भी नहीं । वस्तु क्रिया, भाव की व्याख्या व कोई भी कार्य सम्पन्न सर्व उपकारियों के उपकार के साथ, भूल का करने की अनेक विध प्रक्रिया, भिन्न भिन्न विकल्प | आत्म दर्पण तत्व - दर्शन 25 बोल का स्तोक - मार्ग व्रत प्रतिज्ञा, प्रत्याख्यान, नियम धारण करने के सीधा मोक्ष । भिन्न भिन्न अनेक विकल्प, करण व योग निश्चित करना । अपनी अपनी पसंद व क्षमतानुसार अनेक ( मैं एक आत्म-दीप वस्तुएं खरीदने के समान, नियम धारण के अनेक आत्मा क्या है ? विकल्प । तीर्थंकर भगवानने जिसे 'भांगे' कहा है। जो स्वयं को मैं कहती है, जो जानती है जो पच्चीसवाँ मोती - चारित्र - पापों के सर्व त्याग सोचती है, जो सुख का दुःख का अनुभव करती रूप, सर्व अविरति के त्याग रूप, सर्व विरति रूप है, वह आत्मा है । जो जड़ नही हैं, जड़ संज्ञा जो पर्याय धारण की जाती है, वह चारित्र है। नहीं है, जो चेतन है, चेतन संज्ञा से युक्त है, जिससे सर्व कर्मो का आगमन रूकता, संचित कर्म चेतना जिसका गुण है। लक्षण है, जानना, सोचना, राशि नष्ट होती है, आत्मा पूर्ण रूप से शुद्ध होती समझना, निर्णय करना, जिसके गुण है, वह आत्मा है | महाव्रत, समिति गुप्ति रूप जो संयमानुष्ठान है । ज्ञान गुण 'काल' का नहीं है, पुद्गल का नहीं है, जिससे आत्मा स्व-स्वरूप में स्थित होती है, है, आकाश का नहीं है, वस्त्र पात्र दीवार वाहन जिसके विधि युक्त सम्यग् पालन से आत्मा देवों के कैंची हथौड़ी सुई आदि पदार्थों, कागज, शीशी सुखों से भी अधिक सुख का अनुभव मानव भव में जता, प्लास्टिक, चौकी, ताला, चाबी आदि पदार्थों ही करती है । चारित्र मोह के क्षय, उपशम, का भी नहीं है । ये सर्व पदार्थ जड़ लक्षणों वाले, क्षयोपशम के परिणाम स्वरूप उत्पन्न सर्व विरति चेतन संज्ञा से रहित, स्वयं सुख दुःख से रहित परिणाम, संयम परिणाम, सर्व सावद्य क्रियाओं के जड़ है, आत्मा से भिन्न हैं । जो ऐसा समझती है, त्याग रूप, सर्व निरवद्य आचरण | जिसे धारण वह आत्मा है । जे आया से विण्णाया... । जो करके (आत्मा) साधु, भिक्षु, मुनि, निर्ग्रन्थ कहलाते आत्मा है वही विज्ञाता है । जो दिखता नहीं, ज्ञान हैं । सर्व विरति रूप, सर्व संयम रूप, सर्व यतना से ही जाना जाता है वही आत्मा है । आचारांग रूप, सर्व निरवद्य आचरण रूप, महाव्रत समिति सूत्र । गप्ति भिक्षाचरी, स्वाध्याय, ध्यान, तप, विहार रूप जो पर्याय धारण की जाती है । जिसे तीर्थंकर जैसे मुझे दुःख होता है, वैसे ही दूसरों को भी भगवान ने 'चारित्र' कहा है। होता है, पीड़ा आने पर चंचलता मुझको आती है वैसी ही चंचलता दूसरे में भी देखी जाती है, सार जैसे मैं दुःख नहीं चाहता, वैसे ही दूसरे भी दुःख वस्तु तत्व आसानी से ग्रहण हो सके, इसलिए | नहीं चाहते, जैसे मैं दुःख से बचने का, दुःख दूर यह विस्तार लिखा । सर्व श्रेष्ठ परिभाषा का चुनाव | करने का उपाय करता हूँ, वैसे ही दूसरे भी दुःख व निर्माण करके विनय के साथ अपनी प्रज्ञा का | से बचने का, दुःख दूर करने का उपाय करते हैं ।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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