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________________ जिसको इस बात का ज्ञान होता है, वह आत्मा है । ऐसा ज्ञान करके जो दूसरे को पीड़ा नहीं देता, पर के हित का विचार करता है, पर के प्रति स्वसमान का भाव करता है, पर का हित करता है, वही आत्मा है । 'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई' । जो एक आत्मा को जानता है, वह सभी आत्माओं को जानता है । आचारांग सूत्र | कितना काल हुआ है ? कितना काल बीत गया है ? कितना काल शेष है ? मैं यह कार्य करूं, यह कार्य न करूँ, इसमे मेरा लाभ है, इसमें मेरी हानि है; मैं वहाँ जाऊं या न जाऊं; इतना याद है, इतना प्रमाद से भूला दिया है; मैं कितना कर सकता हूँ ? कितना कर रहा हूँ ? कितना करना चाहिए ? जिसे इन सब भावों का ज्ञान होता है, जो इन सब भावों का सत्य ज्ञान करती है, वह आत्मा है 1 क्या खोया है ? क्या पाया है? ऐसा जानने वाली ही आत्मा है । यह क्या शब्द है ? किसका शब्द है ? कौन सी दिशा से आया है? कितनी दूरी से आया है? इसका क्या अर्थ है? क्या यह पहली बार सुना है ? अथवा पहले भी सुना है? इसी जन्म में सुना है ? अथवा पहले भी कभी सुना है? जैसे जाना, सीखा था क्या वैसा ही करना चाहिए? अथवा और अच्छा भी कोई उपाय है ? यह क्या वर्ण है? क्या आकार है ? क्या वस्तु है? कैसी गंध है? कैसा स्वाद है? कैसा स्पर्श है? क्या खड़े होना चाहिए? अथवा बैठना चाहिए? चलना चाहिए? अथवा रुकना चाहिए? यह सोने का समय नहीं है, जागने का समय है; जागूं ? करूं ? पूरा करूं ? सफल बनूं ? ऐसा जानने समझने वाली ही आत्मा है । जो अमुक-अमुक अवसर पर विचार के साथ किसी कार्य में स्वयं को प्रवृत्त करती है, सिर में बल 133 लगाती है, कानों में, आँखों में, नाक में, मुख में, गले में, पेट में, हाथों में, पैरो में, बाजुओं में, टांगो में, हड्डी में, माँस में, नसों में वामन में, खांसी में, सांस में, मैल निवारण में बल लगाती है, इस देह से भिन्न, देह का संचालन करने वाली ही आत्मा है। जो अपने-अपने शरीर प्रमाण विस्तार वाली है वही आत्मा है । जो इस बात को भी जानती है, समझती है, निर्णय करती है कि, ये केवली भगवान हैं, ये वीतराग हैं, यह सुधर्म है, यह अधर्म है, यह कुधर्म है, यह मोक्ष मार्ग है, यह संसार मार्ग है; यह सत्य है, यह पाप है, यह अपाप है; केवली भगवान ने इसे पाप माना है, इसे पुण्य माना है; इसे आश्रव माना है, इसे संवर माना है, इसे बंध माना है, इसे मोक्ष माना है, इसे सिद्ध माना है, इसे संसारी माना है; इसे दुःख का कारण माना है, इसे सुख का कारण माना है, इसे जीव माना है, इसे अजीव माना है, इसे अनादि भाव माना है, इसे अनंत भाव माना है; इसे सम्यग् ज्ञान माना है, इसे मिथ्या माना है, जो इस प्रकार विचार करती है, स्व को ज्ञान दीप प्रकाशित करती है, ज्ञान में स्थिर व दृढ़ बनती है, चारित्र से सजती है, तप से तेज लाती है वही आत्मा है । हे आत्मा दीप ! अज्ञान कालिमा दूर करो और ज्ञान दीप बनो । जो कर्म का ज्ञान करती है, कर्म बंध के कारणों को समझती है, दुःख को समझती है, दुःख के कारणों को समझती है, झूठे सुख व सच्चे सुख में अंतर को समझती है, सच्चे सुख के उपायों को समझती है; जिसमें सागर के समान विशाल क्षमा उत्पन्न होती है; झुकी हुई बेल के समान विनय व मृदु फल के समान शक्कर मिश्री के समान मधुरता उत्पन्न होती है; सूर्य किरण के समान सीधे मार्ग के समान सरलता उत्पन्न होती है, पाषाण के समान, बंद पात्र के समान संतोष उत्पन्न होता है; जिसमें
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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