________________
इन चारों में विवेक है जो सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है । कर्म काटना चाहे तो - सिद्ध गति प्राप्त कर सकता है । काला सिर का मानवी (मनुष्य) क्या नहीं कर सकता । जो चाहे, जो धारण करे वह सब कर सकता है । (संकल्प कर) बस अनन्त काल से कर्मों का दण्ड भोग रही आत्मा को दण्ड मुक्त करने की साधना आज से शुरू करदो । तत्त्व बुद्धि से, विवेक बुद्धि से निर्णय कर आत्मा के मार्ग में, ज्ञानियों के मार्ग में आगे बढ़ो ।
"कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं" (सूत्र- दशवैकालिक) इच्छा (काम) को घटादे, आत्मन ! निश्चय ही दुःख दूर होगा । श्रद्धा कर और हो तैयार, वीतराग मार्ग पर ।
17 ) लेश्या छः आत्मा के परिणाम या कर्मों को चिपकाने में जो सहायक वह है, लेश्या । जहाँ तक
श्या है वहां योग ( 15 ) है । लेश्या छः है । आठवें बोल में बता दिया योग के बारे में। अब लेश्या भाव एवं द्रव्य दो प्रकार की है । द्रव्य याने पुद्गल जड़ परन्तु भाव लेश्या (परिणाम) ही तो द्रव्य को लाती है । तीन लेश्या शुभ और तीन अशुभ है । आयुष्य कर्म का और लेश्या का संबंध ऐसा ही है कि हमें बहुत कुछ अप्रमत्तता की ओर जोड़ सकता है। जिस लेश्या के परिणामों में मनुष्य आयुष्य बांधेगा, मृत्यु से पूर्व भी वही लेश्या आएगी । सव्वओ पमत्तस्स भयं, अपमत्तस नत्थि भयं II (आचा.)
प्रमादी को चारों ओर से भय रहता है- अप्रमादी को नहीं ।
"सातवाँ अप्रमतसंयम गुण-स्थान में शुभ लेश्या ही रहती है ।
प्रमाद छोड़ो, अप्रमत्त बनो, निश्चय ही सद्गति प्राप्त होगी । हर पल लेश्या / परिणामों पर नजर / ध्यान रखें तो हमारे अशुभ में रुकावट होगी। शुभ लेश्या - शुभगति का कारण बनती है और अशुभ 'लेश्या अशुभ गति का। भाग्यशाली मानव से बढ़कर कौन हो सकता है ? साधना करने का स्वर्णिम
102
अवसर, अशुभ का त्याग, शुभ में प्रवेश, अंधकार से प्रकाश में प्रवेश यही सार है जीवन का |
18) दृष्टि तीन : भोग विषयासक्ति दृष्टि से आत्मा को अज्ञान रूपी अंधकार रूचता है, अच्छा लगता है। उसे प्रकाश, ज्ञान, सम्यक्दृष्टि अच्छी नहीं लगती है । “चोर को अंधेरा ही पसंद होता है”, ऐसी कहावत है । वैसे ही जहर काटे व्यक्ति को नीम कड़वा न लगकर मीठा ही लगता है। मिथ्यादृष्टि की दशा भी वैसी ही है। जीवन में जहर घोल रही है । अमृत की बजाय विष पैदा कर रही है । क्रोध में माता का दूध भी पुत्र के लिए जहर का काम कर सकता है, । दूध जहर नहीं, क्रोध जहर है | वैसे ही “अज्ञानता” जहर से भी भयंकर मारक
। अज्ञान में से अ. हटाने से ज्ञान रह जावेगा । जो ज्ञानी होगा उसकी दृष्टि भी सम्यक् ही होगी । अन्तःकरण में दृढ़ श्रद्धा और रुचि तथा वीतरागता की उपासना से हमारा कल्याण अवश्यंभावी है । उठो बढ़ो तैयार हो ! साधन-साधना हेतु आगे बढ़ना, आत्मा में वीर्योल्लास पैदा करना । सम्यकदृष्टि जीव का वर्तमान और भविष्य उज्ज्वल ही होता है ।
19) ध्यान-चार : मन-चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा गया है। शुभ अशुभ दोनों प्रकार से होता है । व्यवहार में “ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण, अर्थ रखता है । लक्ष्य रखना, धरना आदि अनेक सार्थक अर्थ निकल सकते हैं । यहाँ ध्यान के दोनों भेदों में आर्त्त-ध्यान और रौद्र-ध्यान को समझना और छोड़ना है। जब प्रकाश घर में हुआ, अंधकार गया, समझो। वैसे धर्म ध्यान किया तो अशुभध्यान गया समझो । राग से आर्त्तध्यान, रोष (द्वेष ) से रौद्र ध्यान इन दोनों से भयंकर संसार की भव परंपरा में आत्मा भटकती है। मनोज्ञ, अमनोज्ञ, रोग व निदान ये चार कारणों से आर्तध्यान एवम् क्रूरता के परिणामों को रौद्र ध्यान कहते हैं । नरक व तिर्यन्च गति देते हैं । इन दोनों से छूटने का उपाय भगवान ने बताया है, धर्म ध्यान करो । आज्ञा क्या है तीर्थंकर की ? इसका गहराई