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________________ 293) दुनिया में हर चीज नई अच्छी लगती है | 299) सामान्यतः जो पाँच (वय) में नहीं सुधरता लेकिन माँ नई कोई नहीं चाहता। | वह पचपन में भी नहीं सुधरेगा । 294) धर्म का तात्कालिक फल - मानसिक | 300) मानव को चाहिए कि वह दूसरों के कल्याण, शांति । समाधि व सुख में निमित्त बने, दुःख में 295) स्मृति कान से नहीं, परंतु मन की एकाग्रता निमित्त न बने। से मिलती है। 301) एक पच्चक्खाण से भी जीव के गुणों में 296) घर में पुस्तकों को देख कर मानव की विचार अनंत गुणी वृद्धि होती है। धारा एवं उसकी मानसिकता का पता चलता 302) जो समुद्र तैर लेता है उसके लिए नदी तैरना कठिन नहीं है । वैसे ही जो अब्रह्म 297) जिसका मन ज्ञान में रमण करता है, उसे का त्याग कर देता है, उसके लिए शेष व्रत पालन कठिन नहीं है। इन्द्रिय सुख की जरूरत नहीं है। 298) माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को अति सुविधाएँ न देकर, सुसंस्कार दें। श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी की सदा जय विजय हो ! गहराई में उतरे तो मोती मिलेंगे १. २. ३.. ४. जे दुःख ने हरे ते मंगल नहि, पण दुःख ने पैदा न ज थवा दे तेज “खरूं मंगल" | जो सुख ने करे ते मंगल नहि, पण सुख नी चाहना न थवा दे तेज “खरूं मंगल" | जो पाप ने हरे ते मंगल नहि, पण पाप ना अध्यवसाय पैदा थवा न दे ते “खरूं मंगल" | जे रोग ने दूर करे ते मंगल नहि, पण असाता वेदनीय कर्म नो, बंध थवा न दे तेज मंगल | जे मरण ने रोके ते मंगल नहि, पण आयुष्य कर्म नो बंध थवा न दे ते मंगल | जे कष्टों ने कापे ते मंगल नहि, पण भव ना भ्रमण ने हटावे ते मंगल । जे अहित न थवा दे ते मंगल नहि, पण आत्मा ना हित मा जे थापी दे ते मंगल | ६. ७.
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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