________________
266) परमात्मा महावैद्य हैं क्योंकि उन्होनें हमें | 279) आचरण ज्ञान की सुगंध है। जिनवाणी रूपी वह औषधि दी है जो हमारी
280) ज्ञान ही आत्मा को वास्तविक आनंद दे आत्मा पर लगे जन्म जन्मांतर के रोगों का
सकता है, बशर्ते कि ज्ञान कोरी भाषणबाजी इलाज कर सकती है।
तक सीमित न रहे। 267) पदार्थ में सुख नहीं, सुख का आभास
281) ज्ञान का क्रिया से मेल परमावश्यक है। मात्र है।
282) सांसारिक मोह माया की धूल के कारण हमें 268) गुरू वह है जो हमारे जीवन में व्याप्त मोह
अपने चित्त के दर्पण में सच्चाई के दर्शन लोभ आदि अंधेरों को दूर करते है व हमें
नहीं होते । ज्ञानरूपी उजाले की ओर ले जाते हैं।
283) परमात्मा का ज्ञान ही हमारे अंतर्चक्षुओं 269) हम मृत्यु को रोक नहीं सकते किंतु उसे
को खोल सकता है। सुधार अवश्य सकते है ।
284) जब तक हम गुणानुरागी नहीं बनेंगे, तब 270) छोटे-छोटे नियम भी हमारे जीवन को
तक गुणों को नहीं अपनाएंगे व गुणों को संवारने व सुधारने में अहम भूमिका निभाते
अपनाए बिना आत्मकल्याण असंभव है ।
285) दूसरों के दुर्गुणों को देखने से हमारे अपने 271) यदि संत न होते तो यह संसार जीने
दुर्गुण कम नहीं होंगे। योग्य न होता।
286) पाप ऊमस के समान है । यदि इस पर 272) आज मनुष्य अपने 'कर्मो को जलाने' के जिनवाणी की बरसात हो जाए तो परम बजाय अपने 'गुणों को जलाने' में लगा शांति व्याप्त हो जाती है।
287) भाषा हमारे संस्कारों, हमारी सभ्यता व 273) आज लोग त्यागियों के चरणों मे सिर हमारे व्यक्तित्व की परिचायक होती है । तो झुकाते हैं, किंतु उनके गुणों को नहीं
288) जैन साधु साध्वी 'मोबाइल तीर्थ' हैं। " अपनाते।
289) भाषा संस्कृति की संवाहक है । यदि 274) आचार ही प्रथम धर्म है।
हमने अपनी भाषा, अपनी संस्कृति की 275) देव दुर्लभ मानव तन को पाकर भी राग द्वेष रक्षा नहीं की, तो हमारी पहचान, हमारा के खेल में लगे रहना, महा मूढ़ता है।
अस्तित्व संकट में पड़ सकता है । 276) सामायिक राग द्वेष को मिटाने की वास्तविक 290) अध्यात्म रहित जीवन निरर्थक है । व सरल विधि है।
291) खाओ पीओ और मौज करो की पश्चिमी 277) सामायिक मानव मात्र को सुलभ स्थायी संस्कृति को अपनाकर हम स्वयं अपने विनाश कमाई है।
का पथ निर्मित कर रहे हैं। 278) जिसके पास सामायिक की कमाई व प्रतिक्रमण | 292) स्वधर्मी की उत्थान भावना, हमारी पहचान की पूंजी है, वही वास्तविक सेठ है।
होनी चाहिए।