SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधना ज्ञान आलोचना ज्ञान | अंतिम ज्ञान आलोचना ज्ञान | सर्वोच्च ज्ञान - आलोचना ज्ञान । - - चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो । सूत्र उत्तराध्ययन संसार में परिभ्रमण करते हुए, माणुसतं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ जीवों को चार परम अंग प्राप्त होने कठिन हैं, दुर्लभ हैं - मनुष्य जन्म, जिणवाणी का श्रवण, श्रद्धा, संयम में पराक्रम करना। हे परम पूज्य भगवान । अनादि काल से भयानक संसार अटवी (वन) में भटकते हुए जन्ममरण पर जन्म-मरण करते हुए, अब इस अनमोल मोती रूप मनुष्य जन्म को मैंनें प्राप्त किया, मनुष्य जन्म को प्राप्त करके सब दुखों, सब कर्मों, सर्व जन्म-मरण का, सर्व अंत कराने वाले, आपके सुन्दर सत्य धर्म को भी प्राप्त किया, अनेक बार चार तीर्थ के परम उपकार से धर्म श्रवण के दुर्लभ, महादुर्लभ अवसरों का लाभ उठाया, अनेक व्रत नियम प्रत्याख्यान धारण किए, अपनी आत्मा के कल्याण के लिए तप भी किए। अच्छा होता यदि आपके धर्म की परम उच्चता को गौतम स्वामीजी आदि महान साधकों की तरह धारण करता, परन्तु मैं ऐसा कुछ भी न कर पाया । वास्तव में मेरी ऐसी योग्यता ही नहीं; जल की एक बूंद भला सागर कैसे बन सकती है? आपके धर्म की पूर्णता को धारण करने में जो भी कोई मेरे से कमी रही, करने योग्य में उद्यम नहीं किया, प्रमाद किया, वह सब मैनें अच्छा नहीं किया । मैनें अपने सर्व कर्मा श्रव द्वारों को बंद नहीं किया, पूर्ण संवर की आराधना नहीं की, अपने मानव जीवन के अनेक अनमोल क्षण व्यर्थ गंवाए, धर्म रहित भावों में, कार्यों मे व्यर्थ गंवाए, वह सब मैनें अच्छा नहीं किया । उस सब का बार बार मिच्छामि दुक्कड़ । इस प्रकार सिवाय अपनी आलोचना निंदा के अब और मेरे पास कुछ नहीं । 154 आलोयणाए णं भंते ? जीवे किम् जणयई? आलोयणाए णं माया नियाण मिच्छादंसण सल्लाणं मोक्खमग्ग विग्घाणं अणंतसंसार वद्वणाणं उद्धरणं करेइ | उज्जुभावं च जणयइ । सूत्र उतराध्ययन हे भगवान! आलोचना से जीव मोक्षमार्ग की घात करने वाले अनंत संसार की वृद्धि करने वाले, माया- निदान - मिथ्या दर्शन तीन कांटो को बाहर निकालता है, नष्ट करता है । सरलता को प्राप्त करता है । एवं और भी स्त्री वेद, नपुंसक वेद का बंध नहीं करता है... पूर्व काल के दुष्कृत के प्रति पश्चाताप उत्पन्न करता है, मोह कर्म नष्ट करता है, विनम्रता को प्राप्त होता है, प्रशस्त योगों वाला होता है, अणंत ज्ञान व सुख के घातक कर्म नष्ट करता है । तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्टि णो आलोएज्जा....। तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्टु आलोएज्जा.... स्थानांग सूत्र । आलोचना प्रायश्चित आराधना किये बिना जिसके संसार के द्वार नहीं रुकते है। नहीं प्रतिक्रमण बिना, नहीं प्रायश्चित बिना, भ्रमण बंद नहीं होते । तीन कारण से मायावी जीव माया करके, पाप करके आलोचना नहीं करता मैनें माया, पाप किए थे, करता हूँ, आगे भी करूंगा (निवृत्त. नहीं हूँ); मेरी अकीर्ति, अवर्णवाद व अविनय होंगे; मेरे यश कीर्ति पूजा सत्कार कम हो जाएंगे। अपने जन्म मरण को मानने वाला तीन कारण से आलोचना करता है - आलोचना नहीं करने से मेरे वर्तमान व आने वाले जन्म निंदित, मंद, अल्प, निष्फल हो जाएंगे; आलोचना करने से प्रशस्त, उत्तम, सफल हो जाएंगे; मेरे वर्तमान ज्ञान दर्शन चारित्र सुरक्षित रहेंगे व आगे भी प्राप्त होंगे। आलोचना नहीं करने वाला समाधि को प्राप्त नहीं करता, परलोक में उत्तम देव नहीं बनता, बोलता है तो दूसरे देव चुप करा देते है, मत बोलो। मत बोलो । आलोचना -
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy