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________________ करने वाला समाधि को प्राप्त करता है, परलोक में | यथायोग्य प्रायश्चित दे सकें, गंभीर (आलोचना सुनकर उत्तम देव बनता है, दूसरे देव उसका बहुत आदर | न स्वयं क्रोधित होने वाले न औरों के आगे प्रकट करते हैं - आप और बोलिए । और बोलिए । करने वाले, पूर्ण रूप से पचा सकें) खण्ड खण्ड अगले मनुष्य भव में भी बहुत आदर पाता है। । करके प्रायश्चित का निर्वाह करा सकें; इसलोक दसविहा पडिसेवणा पण्णत्ता || स्थानांग परलोक का भय बताकर आलोचना में भली प्रकार सूत्र । दस प्रकार से दोष का सेवन होता है - विशेष स्थापित कर सकें, प्रिय धर्मी, संकट में भी दृढ़ मोह उदय में आने पर, प्रमाद में जाने पर, विस्मृति, धर्मी । ऐसे बहुत आगमों के ज्ञाता, गुण ग्राही, असह्य भूख प्यास, संकट आपत्ति, शंकित वस्तु समाधि उत्पादक आलोचना सुनने के योग्य होते लेने से, अकस्मात दोष लगना, भय आने पर, है | सर्व गुण युक्त प्राप्त न हों तो अधिक से विशेष राग अथवा द्वेष के कारण, पदार्थों एवं योग्यता अधिक गुणों वाले देखना । मुनि जी हो या श्रावक की परीक्षा के लिए | (दोष सेवन अच्छा नहीं)। जो गंभीरता गुण से संपन्न हों, केवल उन्हीं के आगे आलोचना करना, शेष गुण होने पर भी गंभीरता दस आलोयणा दोसा पण्णत्ता - आलोचना अल्प हो तो आलोचना नहीं करनी चाहिए, वरना करते हुए भी दस प्रकार से दोष लगता है - प्रायश्चित स्वयं को भयंकर असमाधि का वातावरण बन सकता के भय से कांपना, भली प्रकार विचार न कर है । जन्म-मरण मिटाने के प्रयत्न, उल्टा अविवेक अनुमान मात्र से दोष कहना, दूसरों के द्वारा देखे या अतिरेक के कारण जन्म-मरण की वृद्धि का कारण गए, केवल बड़े बड़े (छोटे दोषों की क्या आवश्यकता न बन जाए, पहले ही सावधान रहना । स्व गुरू है?), केवल छोटे छोटे दोष कहना, अस्पष्ट कहना, प्राप्त न हो तो उनकी श्रद्धा के अन्य आचार्यजी, जानबूझकर जोर जोर से, बार बार अनेकों के या अन्य गंभीर मुनिजी, वे भी न हो तो आगमो के आगे, अयोग्य के आगे, समान दोष सेवी के आगे ज्ञाता श्रावक, वे भी न हो तो कोई जिणवाणी के कहना । आलोचना के दोष दूर करते हुए केवल श्रद्धालु गंभीर, अरिहंत भगवान, सिद्ध भगवान विशेष विश्वसनीय के आगे ही करनी चाहिए। केवल ज्ञानियों की व्यवहार सत्र की आज्ञा है। जो ___ दस गुण युक्त आत्मा में आलोचना की जो भाव कहा जा सके वह वह विशेष आत्मा को योग्यता आती है - जाति, कुल, विनय, सम्पन्न, कहकर शेष भगवान के आगे मौन भाव से मन में ज्ञान दर्शन - चारित्र सम्पन्न । क्षमावान, इन्द्रिय कह देना या जंगल के एकान्त मे जोर जोर से विजेता व वैराग्यवान, सरल आलोचना करके पश्चाताप बोल बोल कर सभी पापों को कहना । यथा योग्य नहीं करने वाला अथवा आलोचना रहित को पश्चाताप प्रायश्चित स्वतः ले लेना । अपनी आत्मा छुपाने होता है - विचारने वाला | एक बार पूर्ण आराधना वाली, माया वाली, प्रायश्चित में भय मानने वाली होने पर आत्मा 7 मानव जन्मों में अवश्य सिद्ध हो | होगी तभी अपना दोष है वरना नहीं, शेष केवल जाती है । (भगवती शतक 8) परिस्थितियाँ मात्र है | आलोचना सनने वाले . दस गुण धारी आलोचना सुनने के योग्य | प्राप्त हो, फिर भी भगवान को आगे करें तो यह होते हैं - ज्ञानादि पांच आचार के पालक (धर्म के छुपाव है, दोष है। प्रायश्चित देने की योग्यता वाले उत्तम आचरण में स्थित) आलोचना सुनकर सब | होने पर भी स्वय ले, तो दोष है । सभी भाव कहे बातों को स्मृति में धारण कर सकें, प्रायश्चित सम्बंधी | नही जा सकते, जो कहने योग्य होते हैं, वे ही पांचो व्यवहारों के ज्ञाता, आलोचक का संकोच कहे जा सकते है । पूर्वोक्त भावों को जानकर जिस हटाकर साहस पैदा करा सकें, उसको भली प्रकार | विधि से (स्व क्षमता देखकर) अधिक से अधिक
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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