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________________ 99) मन यदि वश में हो तो मन से बढ़कर कोई | 112) संकल्प शक्ति को यदि अध्यात्म से जोड़ मित्र नहीं और यदि मन वश में न हो तो दिया जाए तो व्यक्ति का आत्मकल्याण मन से बड़ा कोई दुश्मन नही है। निश्चित है। 100) मन की शक्ति अपार है जो इस शक्ति का | 113) सद्कार्यों की अनुमोदना से मन शुभ प्रवृत्तियों सदुपयोग करने की कला जान लेता है, की ओर बढ़ता है व गुणों का विकास होता सफलता से दूर नहीं रह सकता । 101) अनुकुल - प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच | 114) मेहनत और ईमानदारी से अर्जित किया समभाव से अपनी अंतर्यात्रा पूरी करने वाला गया धन शांति, समृद्धि व संतोष को जन्म साधक ही 'प्रभुत्व' को पा सकता हैं। देता है । इसके विपरीत छल व पाप वृत्ति 102) श्रद्धा सम्यकरत्न है, इसके समक्ष सभी से अर्जित किया गया धन अशांति व कलह का कारण बनता है। रत्न फीके हैं। 103) 'श्रद्धा' नर से नारायण बना देती है। 115) ज्ञान प्रत्येक जीव का मौलिक गुण है । 104) श्रद्धा तो हृदय की क्यारी से उठने वाली 116) ज्ञान प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समभाव सुवास है, इसे बाजार से नहीं खरीदा जा रखना, शांत रहना सिखाता है । सकता। 117) सत्य जीवन का आधार है। 105) भोजन का आनंद भूख में है, भजन का 118) यह सर्वकालिक सार्वभौमिक सत्य है कि सत्य आनंद भक्ति में है व आराधना का आनंद सदा विजयी होता है। श्रद्धा में है। 119) सत्य निडर होता है, इसलिए विनम्र व 106) अपने आत्मोत्थान के लिए की जाने वाली सरल होता है। धार्मिक क्रियाओं के लिए किसी अन्य व्यक्ति 120) जैसे प्रातःकाल सूर्य की किरणें जब धरती पर निर्भरता उचित नहीं है। के कण-कण, तृण-तृण को आलोकित करती 107) चातुर्मास आत्म मंथन व आत्मावलोकन है, तो ओस गायब हो जाती है । वैसे ही का अवसर है। सत्य की प्रखरता के सामने असत्य का 108) व्रत और नियम जीवन रूपी गाड़ी के पहियों अस्तित्व समाप्त हो जाता है। के नट बोल्ट है । इन्हें जितना कसा जाए 121) व्यर्थ की बातों में रस लेने के कारण मनुष्य जीवन यात्रा उतनी ही सुरक्षित होती है। पूर्णज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता । 109) भूल पर भूल करना नादानी है और भूल | 122) मनुष्य को चाहिए कि अपनी बौद्धिक क्षमता पर पश्चाताप करने वाला ही सच्चा इन्सान का उपयोग स्वयं के विकास के लिए करे, न कि दूसरों को नीचा दिखाने के लिए | 110) संकल्प, सफलता का प्रथम द्वार है। 123) समय का प्रत्येक पल बेहद मूल्यवान है, 111) यदि संकल्प दृढ़ हो तो राह के शूल भी इसका सदुपयोग करना चाहिए । फूल बन जाते हैं। | 124) आलस्य दुर्गुर्गों की खान है ।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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