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125) सच्चा धार्मिक वही है जो दूसरों के प्रति | 137) मनुष्य भव कर्मो के बंधन काटने के लिए दया व मैत्री भावना रखता है।
मिला है, लेकिन इंद्रियों की असीम क्षुधा 126) ज्ञानी सदैव शुभ चिंतन करते हैं।
को तृप्त करने के मूर्खतापूर्ण प्रयास में मनुष्य
इस बंधन को और मजबूत बना रहा है। 127) शरीर प्रतिक्षण मृत्यु की ओर बढ़ रहा है,
रूप की आभा क्षीण हो रही है व धन तो | 138) दुःख से सभी छुटकारा चाहते हैं लेकिन चंचल है, इसलिए इन पर अभिमान करना
दुःख से तब तक छुटकारा नहीं हो सकता महामूढ़ता है।
जब तक सुखों की चाह है। 128) हिंदू वही है जो हिंसा का विरोधी है। 139) पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण हमें विकास
की ओर नहीं विनाश की ओर ले जाता है। 129) धन के प्रति बढ़ती चाह, पतन का कारण है। 130) चारित्र वह अनमोल हीरा है, जिसकी प्राप्ति
140) संवर और निर्जरा का मार्ग मिलने के बाद मनुष्य भव में ही संभव है । चारित्र के बिना
भी आडंबर को बढ़ावा देना, कुरीतियों को न तो कर्मो का क्षय होता हे और न मोक्ष
प्रोत्साहित करना, जीवन मूल्यों को ताक की प्राप्ति ।
पर रख देना बुद्धि के दिवालिया पन का
प्रमाण हैं। 131) मोक्ष मार्ग कमजोर व्यक्तियों के लिए नहीं है। इस मार्ग पर चलने वाले साधक के धैर्य 141)
महापुरूषों, संतो को अपना आदर्श बना व संकल्पशक्ति का पग-पग पर परीक्षण
लेना ही पर्याप्त नहीं है । आवश्यक है कि होता है । यह तो संसार की विषयवासना की
उनके सिद्धांतो को अपनाया जाए, उन्होनें आंधियों के बीच संयम, विवेक व समभाव
जिन-जीवन मूल्यों का प्रतिपादन किया है वे का दीप जलाने का मार्ग है।
हमारे जीवन के अंग बने । 132) तपस्वियों की अनुमोदना का श्रेष्ठतम तरीका 142) आदर्श अच्छा हो तो दिनचर्या अच्छी होती यही है कि उनसे प्रेरणा लेकर हम भी तप
है, दिन-चर्या अच्छी हो तो जीवन अच्छा करें।
बन जाता है। 133) शुद्ध भाव, निर्मल मन व अपेक्षा रहित 143) दूसरों को धोखा देना सरल है, किंतु स्वयं तपस्या ही कर्म निर्जरा में सहायक होती को धोखा देना मुश्किल ही नही असंभव है।
144) दूसरों को बुरा बताकर, उनकी निंदा करके 134) आध्यात्मिक कार्यो में धन का महत्व 'आत्मिक हम स्वयं अच्छे नहीं हो सकते । विपन्नता' का सूचक है।
145) पर-दोष दर्शन की प्रवृत्ति को त्यागें, स्वदोष 135) जो धर्म को धारण करता है, धर्ममय जीवन
दर्शन शुरू करें। जीता है और प्रतिकूल परिस्थिति में भी
146) भूल हो जाने पर उसे स्वीकार कर पश्चाताप धर्म से विमुख नहीं होता, ऐसे ही मनुष्य का जन्म व जीवन सार्थक होता है।
करना महापुरुषों का लक्षण हैं |
147) तपस्या में भावों की शुद्धि अनिवार्य है । 136) धर्म विकारों व कषायों का नाश करता है
तपस्या का एकमात्र उद्देश्य कर्म निर्जरा और गुणों की वृद्धि करता है । शांति, सहजता
हो। और समता धर्म के फल है।