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भी ऐसी ही रूचि, हर्ष व प्रसन्नता के साथ करनी | प्राणी को अंश मात्र भी दुख न देकर सर्व सहन कर चाहिए। यह सामायिक तीर्थंकर भगवान द्वारा दी लेता है, उस शांत आत्मा को सामायिक होती है,. गई है, सब जीवों के हित के लिए दी गई है, किसी ऐसा केवली भगवान का कथन है। जिसका न कोई किसी भाग्यशाली को ही प्राप्त होती है, मेरे इस शत् है, न ही सराग जनित मित्र है, जो सर्व शत्र जन्म के लिए तो सुखकारी है ही, मेरे परलोक के मित्र में एकसमान भाव रखता है, सब जीव मुझे लिए भी बहुत सुखकारी व महालाभ का कारण है। क्षमा करें, मैं भी सबको क्षमा करता हूँ, सब जीव यह सामायिक करूंगा, आत्मा में नई पूंजी संचित मेरे मित्र है, किसी से मेरा वैर भाव नहीं, ऐसा करूंगा।
मानता है, उस आत्मा को सामायिक होती है ऐसा 5) चार प्रकार की सामायिक कौन सी है ? सर्व
केवली भगवान का कथन है। द्रव्य क्षेत्र काल भाव में सम हो जाना, सामायिक श्रावक सामायिक - श्रावकजी अपने धन परिवार करते हुए इन 4 की अपेक्षा से ही सामायिक चार को अपना न समझते हुए भी (जीव तो अकेला प्रकार की कही गई है। सर्वधन मकान वाहन जेवर आता है, अकेला जाता है) उनमें ममत्व बंधन को उपकरण वस्त्र शरीर आदि किसी भी पदार्थ को तोड़ नही पाते, इसलिए उनकी सामायिक दो करण अपना न समझना, इनके वास्तविक स्वरूप का तीन योग से सावद्य-त्याग की होती है, अनुमोदना विचार करके हीरे कंकर में एक समान राग द्वेष | का त्याग नहीं होता, अनुमोदना करते नहीं, परन्तु रहित समभाव लाना । सर्व द्रव्यों की अपेक्षा से यह | लगती है | पहना हुआ जेवर उतार कर रख देते द्रव्य-सामायिक है । स्व के, पर के, जल थल, | हैं, ममता रह जाती है, सामायि आकाश के, समीप के दूर के, सुन्दर असुन्दर सब | से पहन लेते हैं। दृष्टांत : किराए के वाहन से सेठ क्षेत्रों की आसक्ति न रख एक अपने शुद्ध आत्म | जी लौटे, जेवर की पेटी भूल गए, सामायिक करने स्वरूप में स्थित होना क्षेत्र-सामायिक है । महर्त लग गए, अचानक ध्यान आया, चिंता हुई कि समता दिन, रात, मास, ऋत, वर्ष आदि की सर्व इच्छा रखी, केवली भगवान ने जैसा-जैसा देखा है, सब अनिच्छा को छोड़ना, बहुत देर हो गई, रात खत्म वैसा वैसा हो रहा है, फिर क्या चिंता ? 2) हार नहीं हर्ड, अभी तक वर्षा ऋत शरू नही हर्ड. शीत उतार आगे रख सामायिक करने लगे । कोई हार काल लम्बा चल रहा है आदि हो, ना हो ऐसी उठा ले गया । कोई चिंता नहीं, जो जाता हे सो. आसक्ति छोड़ना 'काल विषयक', 'काल सामायिक' अपना नहीं, जो अपना है सो जाता नहीं । है। भूख, प्यास, शीत, उष्ण, प्रिय, अप्रिय,वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द में राग द्वेष छोड़कर समता
सामायिक ज्ञान - 4 में स्थित होना, क्रोध मान माया लोभ का त्याग कर 1 सामायिक में कर्म क्षय कितना होता है ? उदय में न आने देना, सर्व प्रिय अप्रिय भावों को युं तो प्रत्येक वस्तु अपने अपने गुणों, स्वभाव मन में स्थान न देना, 'भाव-सामायिक' है । वाली होती है जैसे आम का फल तो आम ही होता सामायिक करने वाला साधक पदार्थ जैसे होते है है परन्तु उनमें मिठास भिन्न भिन्न होती है, दूध तो उनका ज्ञान तो रखता है, परन्तु राग द्वेष से रहित | दध ही होता है परन्त कोई पानी वाला. कोई बिना रहता है । इस प्रकार उत्कृष्ट सामायिक होती है। पानी वाला, कोई कच्चा कोई उबला हुआ, कोई जैसे, मैं दुःख नहीं चाहता, वैसे दूसरा भी दुःख | मीठा कोई फीका, कोई घी वाला, कोई बादाम नहीं चाहता, वैसा विचार कर जो किसी भी स्थावर | वाला आदि, इसी प्रकार सामायिक भी सभी को