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दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि चक्र व्यतीत कर सकता है । व एक ही मुहुर्त में वहाँ सब पाणिणं।
उत्कृष्ट 65,536 (पैसठ हजार पांच सौ छत्तीस) गाढ़ा य विवाग कम्मुणो, समयं गोयम मा
बार जन्म मरण कर सकता है । पमायए।। .
बेइन्दियकायमइगओ...। कालं संखिज्जसन्नियं... सूत्र उत्तराध्ययन ।
हे गौतम ! बेइन्द्रियकाय में गया हुआ जीव बहुत बहुत लम्बे काल में भी मानव भव का प्राप्त | बेडन्द्रिय के ही भिन्न भिन्न भेटों में भयंकर द:ख होना दुर्लभ है, क्योंकि प्राणियों के कर्मों के बंध | उठाता हआ संख्यात हजारों वर्षों तक जन्म मरण अति कठोर व उनके फल भी अति कठोर व दीर्घ |
करता रह सकता है । इसी प्रकार तेइन्द्रिय व हैं, इसलिए हे गौतम! इस मनुष्य भव में अब समय चउरिन्द्रिय के भेदों में भी क्रमशः इतना इतना मात्र का भी प्रमाद न करो । इस प्रकार भगवान काल व्यतीत कर सकता है। पंचेन्द्रिय काय (जलचर महावीर ने बहुत सुन्दर शिक्षा दी है कि जन्म मरण | मच्छ आदि), स्थलचर (गाय आदि), खेचर रूप संसार सागर से तारक व अनंत सर्व दुःख |
(चमगादड़ आदि), उरपरिसर्प (सर्प आदि), निवारक सत्य धर्म को प्राप्त करके, मनुष्यों को धर्म | भुजपरिसर्प (छिपकली आदि) में आ जाने पर वहां की आराधना में एक भी क्षण का प्रमाद नहीं करना निरंतर सात आठ जन्म कर सकता है एवं देव या चाहिए क्योंकि कर्मों के कठोर पर कठोर बंध करना | नरक में नारक बन जाने पर वहाँ एक एक जन्म कर तो अति आसान है, परन्तु इनको तोड़ना इतना ही | सकता है, इसके पश्चात फिर से तिर्यंच के भिन्न कठिन है । लोहे के बंधन तोड़ना आसान है परन्तु | भिन्न भेदों में ही वापस चला जाता है। आगे ज्ञानी कर्मों के बंधन तोड़ना कठिन है । अब जीव के
महात्मा जीव का उद्धार समझाते हैं - द्वारा कर्माधीन होकर किए जाने वाले अति लम्बे जन्म-मरण का स्वरूप कहते हैं ।
अपने ही अशुभ कर्मो के कारण जब यह जीव
त्रस पर्याय (बेइन्द्रिय....आदि) को छोड़कर स्थावर पुढ़वीकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
पर्याय (पृथ्वीकाय आदि) वह भी वनस्पति काय में कालं संखाइयं, समयं गोयम मा पमायए ।।
चला गया तो शीत, धूप, प्रहार, शस्त्र, अग्नि, सूत्र उत्तराध्ययन ।
कुचलन, छेदन-भेदन, आदि के दुःख भोगता हुआ
अणंताणंत काल तक जन्म मरण की महापीडाएँ हे गौतम ! पृथ्वीकाय (पत्थर-मिट्टी) के रूप
प्राप्त करता रहा । इस प्रकार जन्म मरण करते में जन्म पा लेने पर यह जीव पृथ्वीकाय के ही भिन्न
हुए वनस्पति के अणंताणंत जीवों में से किसी भिन्न भेदों (प्रकारों) में जन्म मरण पर जन्म मरण
एक जीव ने किसी समय अल्पकाल में अधिक करता हुआ, असंख्यात् उत्सर्पिणी असंख्यात
दुःख भोगने पर हुई अकामनिर्जरा के साथ महापुण्य अवसर्पिणी काल अर्थात अंसख्य काल-चक्र तक
का संचय किया, तब वनस्पति में से निकलकर व्यतीत कर सकता है । इसी प्रकार अपकाय के
पृथ्वीकाय आदि चार स्थावरों में से किसी में जन्म समान ही तेउकाय (अग्नि), वायुकाय (हवा) के रूप
पाया तब एक दो उत्कृष्ट असंख्य जन्म मरण में भी जन्म मरण के भयंकर दुःख उठाता हुआ
करके वापस अणंताणंत काल के लिए वनस्पतिकाय असंख्य काल चक्र व्यतीत कर सकता है। और यदि
में ही लौट गया । फिर बहत लम्बे काल के बाद वनस्पतिकाय में एक बार चला जाए तो संख्यात
उद्धार के योग्य पुण्य का संचय होने पर स्थावर के नहीं, असंख्यात नहीं, अनंत नहीं, अणंताणंत काल