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चर्चा करनी हो, आसपास के शोर आदि बढ़ जाने | जेवर जैसी ममता ही होती है और न ही अपने पर, अचानक अनेक प्राणी जन्तु आ जाने पर, वर्षा लिए रखा है, केवल दान के लिए है वह भी के छींटे आने पर, मलमूत्र की बाधा आ जाने पर, सामान्य याचक को नहीं; निर्दोष आहार लेनेवाले मरते प्राणी को बचाने के लिए एवं और ऐसे विशेष सुपात्र को है, शेष पूरा सत्य ज्ञानी जानते है । कारण है | मल मूत्र की बाधा अनुभव हो तो आहार देते दोष लगे तो वह सामायिक का दोष है, सामायिक बाद में शुरू करनी चाहिए, बीच में मिच्छामि .दुक्कडं करना चाहिए । अचानक बन जाए तो निरवद्य स्थान पर परठनी
6) सामायिक कैसे करे ? यथा चाहिए, वोसिरे करके यदि 15-20 मिनट शेष रहते
1) भगवान की आज्ञा मानते 2) राग द्वेष हो तो इच्छाकारेणं, लोगस्स की पाटी करनी चाहिए
छोड़ते 3) मन वचन काय वश करके 4) विकथाएँ । यदि शरीर ऐसा कि अचानक ही बाधा बनती हो,
छोड़कर 5) इन्द्रिय वशकर 6) काय की यतना रोक न पाते हो तो इसका पहले ही आगार रख
करते 7) सप्ताह में सातो दिन 8) कर्म नाश के लेना चाहिए, नमो अरिहंताणं कहकर उठकर निवृत्ति
लिए 9) लेने पारने के 9-9 पाठ सहित सामायिक कर, जितना काल सामायिक छूटे वह और कुछ
करनी । पंच परमेष्टि, वंदन, सम्यक्त्व, गुरुगुण, प्रायश्चित रूप में इतनी सामायिक आगे बढ़ा लेनी
इच्छाकारेणं, तस्सउत्तरी, लोगस्स, करेमि भंते, चाहिए । यह सामान्य नहीं है, किन्हीं की विशेष
नमोत्थुणं आवश्यकता के कारण है। राजा चंद्रवतंसक के समान सामायिक में दृढ़ रहना चाहिए।
( नमो अरिहंताणं | जीव का उद्धार - 4) सामायिक का प्रायश्चित - सामायिक में गृह,
प्रतिदिन प्रातःकाल का संसारी कार्यों की ओर मन नही किया जाता | सुख
आवश्यक चिंतन दुःख के विशेष समाचार आने पर भी हर्ष शोक रहित समता रखी जाती है। बिना मुखवस्त्रिका
चतारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो । के सामायिक करें तो ग्यारह सामायिक, जानते
माणुसत्तं सुइ सद्धा, संजमम्मि य वीरियं 4/1 || हए पहले पारे तो पांच सामायिक का प्रायश्चित
सूत्र उत्तराध्ययन । आता है । भूल से पारलें तो शेष समय का दुगना
अनादि अनंत चार गति संसार में परिभ्रमण कर स्वाध्याय करे या एक मुहुर्त आदि का पच्चक्खाण
रहे जीवों को चार परम् अंगो की प्राप्ति अति दुर्लभ करें। सामायिक में किसी जीव की हिंसा हो जाए, तो जितना इन्द्रियों वाला जीव हो उतनी सामायिक
है - मनुष्य का जन्म, जिणवाणी का श्रवण, जिणवाणी
पर श्रद्धा व जिणवाणी के अनुसार सुसंयम | और करनी अथवा अपने अपने क्षेत्र में जैसी परिपाटी चल रही हो उसके अनुसार करना।।
धन जन कंचन राज सुख, सबहि सुलभ कर 5) आहार दान - सामायिक करते समय मुनिजी
जान । दुर्लभ है संसार में, एक यथार्थ ज्ञान ||दुहा।। पधारें तो किसी की आज्ञा लेकर आहार दे सकते लब्भति विउला भोए, लब्भति सुर संपया । है, वरना नहीं । सुपात्र दान की भावना करते पहले
लब्भति पुत्त मित्तं च, एगो धम्मो ण लब्भइ ।।1।। ही इसका विशेष आगार व दान योग्य आहार की मर्यादा करके रखलें तो भी मेरे चिंतन से विशेष विपुल भोग । देव संपदा, पुत्र की प्राप्ति आसान है, कोई दोष नहीं होना चाहिए । आहार में न तो धन | परन्तु एक सत्य धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है ।