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________________ अन्य भेदों में आया, परन्तु और ऊँचा उठने में समर्थ न होने पर फिर से वापस वनस्पतिकाय में ही जा पड़ा, जहां से उसका उद्धार पहले के समान ही दुष्कर हो गया । इस प्रकार पांचो स्थावरों में यह जीव अणंताणंत बार जन्म मरण करता रहा जिसकी गणना भी अत्यंत दुष्कर है। किसी जीव पृथ्वीका आदि में आने पर महापुण्य का संचय करके बेइन्द्रिय के भेदों में जन्म पाया, तो वहाँ भी एक दो उत्कृष्ट संख्यात हजार भव करके आगे तेइन्द्रिय तक आने में समर्थ न होने पर वापस वनस्पतिकाय में ही जा पड़ा। वहाँ अणंताणंत दुःख भोगकर फिर किसी समय उद्धार क्रम को प्राप्त कर तेइन्द्रिय अथवा चउरिन्द्रिय तक आकर फिर वापस लौट गया। फिर से नये उद्धार क्रम को प्राप्त होकर असन्नी पंचेन्द्रिय, और आगे बढ़ सका तो सन्नी पंचेन्द्रिय तिर्यन्च जलचर आदि भेदों में एक दो उत्कृष्ट सात-आठ जन्म करके वापस वनस्पति में ही जा पड़ा अथवा अशुभ क्रूर कर्म करने लगा, तब शीत, उष्ण, भूख, प्यास, रोग, भय, शस्त्र, अग्नि आदि के भयंकर दुःखों को भोगकर नरक में ही जा गिरा । वहाँ से निकलकर फिर से पंचेन्द्रिय तिर्यंच होकर इस प्रकार बार बार नरक की आग में ही पडता रहा, अणंताणंत दुःख प्राप्त करता रहा । कदाचित् आत्मिक परिणाम धारा देवगति के योग्य बनी तब असंक्लिष्ट परिणामों में काल करके भवनवासी, व्यंतर छोटी जाति का देव ही बनता रहा, इस प्रकार नरक और देव के भी अनंत जन्म पा लिए परन्तु मनुष्य भव के योग्य भद्रता, विनीतता, अनुकंपा, ईर्ष्या रहितता की परिणाम धारा नहीं बनने से वापस वनस्पति में ही जा पड़ा । पूर्व अनुसार फिर कभी उद्धार क्रम को प्राप्त हुआ, मनुष्य भव पाया तो वह भी अनार्य क्षेत्रों में, जहां दया रहित मांस भक्षण, हिंसा प्रधान कर्म करके अभागा जीव वापस उसी लम्बे जन्म मरण के महाजातिपथ प्राप्त हो गया । अति कठिनता से प्रबल पुण्योदय 144 से आर्यक्षेत्र में जन्म पाया तो भी कसाई आदि अनार्य कर्मी ही रहा। यदि दया वाले में जन्म कुल पाया तो भी अनंत जन्म मरण से उद्धार कराकर सुगति, केवलज्ञान, सिद्धि दिलाने वाली अनंत उपकारी जिणवाणी, सत्य धर्म से अछूता रहकर मिथ्याधर्मो की ही रूचि रखकर, मिथ्या मान्यताओं पर विश्वास करके, अनेक प्रकार के हिंसक कुकृत्य करके वापस वनस्पति में ही जा गिरा । अनंतानंत पुण्य के उदय से यदि जैन कुल में भी जन्म पाया तो भी धर्म से विमुख रहकर आर्तध्यान में ही काल कर गया, कभी जिणवाणी सुनने की रूचि बनी तो मार्ग से ही वापस लौट आया अथवा सुनते हुए मन नहीं लगाया, अथवा सो गया, सुना भी तो तत्वज्ञान न कर पाया। सत्य असत्य का निर्णय न कर सकने से श्रद्धा के योग्य परिणाम धारा न बन सकी, केवली भगवान के चिन्तामणि रत्न रूप धर्म को प्राप्त करके भी और आगे बढ़ने में समर्थ न होने से अनमोल मोती मानव के लिए कितना कितना दुष्कर है कि यहाँ तक यह जीव अणंत बार आकर वापस लौट गया। अब मुझे इस अनमोल मानव भवमें ऐसी श्रद्धा हुई - निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, यही अर्थ है, परमार्थ है, शेष सर्व अनर्थ है; जिण भगवान ने जो कहा है वह पूर्ण रूप से निशंक सत्य है, यह जिण प्रवचन (निर्ग्रन्थ प्रवचन ) सर्वोच्च, अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, सत्य न्याय, पूर्ण विशुद्ध, आत्मा के कंटको का नाशक, सिद्धि व मुक्ति का संसार सागर तिरने का निर्वाण प्राप्ति का मार्ग है, जैसा वास्तव में होता है, वैसा ही प्रकट करता है, सर्व दुखों के अन्त का मार्ग है। मैं इसी धर्म की श्रद्धा प्रतीति रूचि स्पर्शना पालना करता हूँ। इस प्रकार सुदेव सुगुरू सुधर्म का बोध हुआ, अणंताणं पुण्य व परिणामों की विशुद्धि हुई, अणंताणंत सागरों तूफानों पर्वतों को पार कर अब श्रावक पर्याय बनी है। मेरे अमुक अमुक नियम व धर्म कार्य है और वृद्धि विशुद्धि कैसे करूँ ? इस सर्व का मूल्य समझ
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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