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स्वधर्म की सम्हाल करूँ । धन्य होगा वह दिन जब
| ई) यदि केवल जोड़ने में ही लगे रहेंगे और छोड़ने आलोचना आराधना पूर्वक पूर्ण समाधि प्राप्त होगी,
की भावना नहीं है, तो जीवन का कल्याण सुगति प्राप्त होगी, केवल ज्ञान पाकर मेरी आत्मा
नहीं होने वाला है। अणंताणंत विस्तृत भव सागर को पार करेगी, जन्म यदि हम इस भव और पर भव में शांति की मरण के सब दुःखों का अंत कर भगवान महावीर,
कामना करते हैं तो जरुरी है कि हमारा जीवन भगवान ऋषभदेव व अनंत केवल ज्ञानियों के समान मर्यादित हो । सिद्धि के अनंत सुख में लीन होगी । पाप अरे ऊ) संसार में काम-मोह, माया, तृष्णा तथा क्रोध क्यों कर रहा, करता क्यों नहीं मौन ? नरक
के भँवर जाल में उलझकर, मानव प्रभु भक्त निगोद में चला गया तो धर्म सुनावे कौन ?
व साधना के मार्ग से भटक जाता है । जो परमाधामी मारेंगे, एक नहीं लख बार | कौन बचावन
इनके आकर्षण में डूब जाता है, उसके लिए आवेगा, होगा तब कर्म सवार । जिणवयणे अणुरत्ता
भव सागर से पार निकल पाना मुश्किल हो सूत्र उतरा - जिन वचनों मे लीन, भव सागर
जाता है। क्षीण।
ए) ईर्ष्या के कारण आदमी अपने स्वयं के गुणों
को भूल दूसरों के दुर्गुण देखने की वृत्ति बना - अवश्य ही इस आत्मा ने पूर्व काल में अणंत लेता है, इससे दूसरों को लाभ हानि हो न हो बार सेठ मंत्री राजा होकर बहुत धन जेवर रत्न पर स्वयं तो अपना बुरा अवश्य कर लेता है । वाहन बड़े बड़े महल प्राप्त किए बहुत बहुत मित्र ऐ) सत्संग का सही आनन्द एकाग्रता में है। चंचल परिवार यहाँ तक के देवलोक के भी विमान, रत्न चित्त से सत्संग का सही आनंद नहीं मिलता सुन्दर देह सुख भी अनंत बार प्राप्त किए परन्तु प्रत्येक बार दुःखी होकर मरण समय सब छोड़ ओ) प्रभु से प्रार्थना में सुख दो, संपत्ति दो, लाभ दिए, अवश्य ही सर्व संसार व मोह असार है। दो ऐसी याचनाओं से भक्ति की सुगंध नहीं सूत्र उतराध्ययन में कहा है - जिन भगवान की | बल्कि लोभ व स्वार्थ की बदबू आती है। शिक्षाओं, वचनों को आगम से जानकर उनके विचारों की विषमता को मिल बैठकर सुलझाया अनुसार स्वाध्याय व पालन में लीन रहने से आत्माएँ जा सकता है, परन्तु इसके लिए त्याग की संक्लेशों से रहित शुद्ध परिणामी होकर अपना मंशा व समन्वयवादी विचार होना जरुरी है। संसार परित (सीमित) कर लेती है व एक दिन ज्ञान की जानकारी के बिना हमारे सारे कार्य पूरा भव सागर पार कर जाती है।
अर्थहीन होते हैं, क्योंकि ज्ञान से ही भाव
उठते हैं, एवं मन के भावों से ही उत्थान व __ अमृत वृद्धि झरना
पतन होता है। अ) बच्चों में बचपन से ही सुसंस्कार डालने की ( सूर्यों के सूर्य - भगवान महावीर ।
अत्यंत आवश्यकता है। आ) तभी वे धर्म और कर्म को अच्छे से पहचान
ज्ञान दिवाकर । लोक प्रभाकर । भवजल सकेंगे।
तारक । सबदुःख निवारक | भगवान महावीर इ) जगत के सभी जीवों को अपनी आत्मा के | उग्गओ विमलो भाणू, सव्वलोय पभंकरो । समान ही देखना, सम्यक दर्शन है।
सो करिस्सई उज्जोयं, सब लोयम्मि पाणिणं ।।