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________________ उग्गओ खीण संसारो, सव्वण्णू जिण भक्खरो । सो करिस्सइ उज्जोयं, सव्व लोयम्मि पाणिणं ।। उत्तराध्ययन सूत्र | जिन्होनें अपनेसंसार परिभ्रमण का सर्वथा अंत कर दिया है, राग द्वेष के विजेता, सर्वलोक में अपनी ज्ञान दर्शन चारित्र तप की प्रभा को फैलाने वाले वीतराग तीर्थंकर भगवान रूपी सूर्य का उदय हो गया है; हे श्रमण भगवान महावीर सर्व द्रव्यों, सर्व क्षेत्रों, सर्व काल, सर्व भावों के ज्ञाता, सर्वज्ञ, सर्व मल से रहित पूर्ण विशुद्ध प्रकाश से सर्व लोक के प्राणियों के लिए सत्य धर्म का, सत्य मार्ग का उद्योत करेंगे । ऐसे सुन्दर भाव उत्तराध्ययन सूत्र के 23 वें अध्ययन में केशीकुमार जी आदि श्रमणों को गौतम स्वामीजी द्वारा कहे गए है। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के शुभ दिन भरतक्षेत्र के कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ के में माता कुल त्रिशला को लोकमाता कहलाने का अलंकार दिलाते हुए, लोक कल्याणकारी तीर्थंकर नाम कर्म रूपी महापूंजी के साथ श्रमण भगवान महावीर रूपी महासूर्य का जन्म हुआ । सब जीव अपनी अपनी, साता सुख के इच्छुक हैं, सब अपनी अपनी दया चाहते हैं; बड़े होने पर लोक में दया का महा उपदेश करेंगे, ऐसी भावना के साथ तीनों लोकों के सभी 64 इन्द्र व बहुत देव देवियों ने खिले हुए विकसित अत्यंत प्रसन्न हृदय से भगवान को मेरू पर्वत के शिखर पर ले जाकर उनका जन्म महोत्सव मनाया । जब से भगवान राजा सिद्धार्थ के कुल में आए तब से सब प्रकार से धन सुख साता की सब प्रकार से वृद्धि हुई, जिसके कारण माता पिता ने उनका गुणानुसार नाम रखा वर्धमान । वर्धमान वास्तव में ही वर्धमान थे, जन्म से ही मति श्रुत व अवध तीन ज्ञान के धारी थे। चंद्र की बढ़ती कलाओं के समान वर्धमान की देह व आत्मिक गुण निरंतर वृद्धि को प्राप्त होते होते वे एक दिन पूर्णमासी के पूर्ण चंद्र हो गए । बचपन से ही वे विशिष्ट गुणों वाले थे, विद्यालय के अध्यापक बालक वर्धमान की ज्ञान व गुण प्रतिभाओं को देखकर स्वयं को अति अल्प अनुभव करते थे । वर्धमान किसी भी देव दानव मानव से भयभीत नहीं होते थे, एक बार बालकों के साथ खेलते हुए सर्प का रूप बनाकर आए हुए एक देव को चतुराई से हाथ से ही उठाकर एक ओर डाल दिया, बालक का रूप बनाकर देव ने वर्धमान को पीठ पर बिठाकर अपना बहुत बड़ा रूप कर लिया, तब वर्धमान ने उसके सिर पर मुष्टि का प्रहार करके देव को अपनी करतूत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया । बढ़ते बढ़ते वर्धमान जब 28 वर्ष के हुए तो माता पिता आलोचना प्रतिक्रमण सहित संथारा करके 12 वें देवलोक में देव बने ( अगले जन्म में महाविदेह क्षेत्र में जन्म पाकर फिर से धर्माचरण करके सिद्ध हो जाएंगे ) अब वर्धमान दीक्षा लेना चाहते थे कि भाई के कहने से और 2 वर्ष तक घर में ही रहे । तब वैराग्य की उच्च भावनाओं से युक्त हुए वर्धमान ने जल के अपकायिक जीवों को अपने ही समान पीड़ा का अनुभव करने वाले जानकर घर में 2 वर्ष के लिए सचित्त जल का सेवन नहीं किया । वर्षी दान देकर, लोकान्तिक देवों द्वारा जगत के सब जीवों के हित के लिए, तीर्थ प्रवर्तन की परम्परा रूप सुप्रेरणा किए जाने पर, देवों द्वारा मनाए जाते हुए महोत्सव सहित, पंचमुष्टि लोच करके भगवान ने दीक्षा धारण कर जीवन श्रेणी के अगले पाए पर आरोहण किया । संयम में भगवान प्रायः कायोत्सर्ग की साधना में ही लीन रहते थे । मैं निद्रा हूँ, ऐसी भावना से रहित, अति उच्च साधना करते हुए डाँस मच्छर, शीत, उष्ण, भूख प्यास, सर्प चंडकौशिक, शूलपाणि यक्ष, ग्वाला, अनार्य लोगों द्वारा अनेक परीषह उपसर्गों को समता की उच्चता के साथ सहन 146
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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