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467. नमोत्थुणं दो बार दिया जाता है- प्रथम
सिद्धों को व दूसरा अरिहन्तो को, टीकाओं व आगम में कुछ भेद। फर्क भी आया है। चिन्तन करने योग्य विषय है।
468. नमोत्थुणं के विभिन्न नाम मिलते है यथा, शक्रस्तव तथा प्रणिपात सूत्र (नमस्कार ) 469. स्तव-स्तुति मंगल गुणगान करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र रुप बोधि लाभ होता है, बोधि लाभ से साधारण दशा में कल्प विमान तथा उत्कृष्ट दशा में मोक्ष का आराधक होता है।
470. सामायिक व्रत के पाँच अतिचार 1. मन 2. वचन 3. काया ये तीनो को कुमार्ग में जोड़ा तो 4. सामायिक की स्मृति न रखी हो 5. अव्यवस्थित चंचलता आदि की हो।
= मन
471. सामायिक में चार दोष 1. अतिक्रम में अकृत्य का विचार लाना, 2. व्यक्तिक्रम अकृत्य सेवन की तैयारी करना, 3. अतिचार = व्रत भंग की सामग्री जुटा लेना या व्रत का अंशतः भंग होना, 4. अनाचार व्रत का टूटजाना, भंग करना।
472. प्र. मन की गति चंचल व सूक्ष्म होने से सावध - भाव मन में आने से सामायिक टूट जाती होगी ना? प्रतिज्ञा भंग का दोष भी लगेगा।
उत्तरः सामायिक छः कोटि से लेते है, एक कोटि मन से टूट गई तो पाँच तो बची है ना; विराधना के भय से प्रतिज्ञा न लेना तो मूर्खता है। उतार चढ़ाव अपूर्ण में ही तो
आते हैं।
473. सामायिक व्रत तो शिक्षाव्रत है, निरन्तर अभ्यास करने से ही सफलता मिलती है,
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अभ्यास जारी रखिए, एक दिन मन पर नियन्त्रण हो जाएगा।
474. सामायिक को काया से (समाइय सम्मकाएणं) अर्थात जीवन में समभाव को लाये हैं। न फासियं = सामायिक के भावों को स्पर्श न किया हो, आत्मा में स्पर्श न हुई, न पालियं = अतिचारों को टालकर सामायिक न की हो । न तीरियं = सामायिक के काल मान के अंतिम क्षण तक पालन न की हो, न किट्टियं = कीर्तन (गुणानुवाद) या सामायिक प्रति बहुमान भाव न रखे हों। न सोहियं सामायिक के परिणामों में उत्तरोत्तर शुद्धि विशोधन न किया हो। न आराहियं = उत्सर्ग व अपवाद दोनों मार्गो से आराधना नही की हो, आणाए अणु पालियं न भवईः अर्थात तीर्थंकर व देव गुरुव श्रुत ज्ञान में निर्दिष्ट के अनुसार पूर्णतया, तीन योगों की एकाग्रता से पूरी पालन न की हो। तस्स मिच्छामि दुक्कड़म् = मुहूर्त प्रमाण काल (मेरे) द्वारा दुष्कृत का सेवन किया हो तो, उसका पाप मिथ्या हो, निष्फल हो। हे! वीतराग सामायिक में किसी दोष (संज्ञा इन्द्रिय आदि से) का सेवन किया, हो तो मिथ्या होवे।
=
475. आत्मा में रमणता आना ही सामायिक का प्रथम लक्षण है। आत्मा का स्वस्थता की ओर प्रयाण शुरु |
476. विषमता स्वयं दुःखी और दुःखों की जननी है और समभाव स्वयं सुखी और सुखों की जननी है।
चारित्र आत्म शुद्धि करण करता है, सामायिक से ही चारित्र (सर्व देश) प्रारम्भ होता है।