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________________ 477. राग-द्वेष से ही आत्मा अजीवों में जुड़ा है - | सामायिक का स्वाद शुद्धता के आधार फंसा है। जीव का अंतिम समाधि स्थान पर ही मिलता है। अव्याबाध सुख बीज तो सामायिक ही है। 485. ठाणांग सूत्र में आत्म-कल्याण के दो बोल 478. आवश्यक (प्रतिक्रमण) में 'सामायिक' न बताए है, 1. विद्या और 2. चरण। सम्यक आवे तो पाँचो आवश्यकों में उत्कृष्ट रसायन ज्ञान और दर्शन को विद्या' माना गया है, नहीं आ सकता है। तथा सम्यक चारित्र और तप को 'चरण' बताया है। 479. तीर्थंकर देवों, गणधरो, आचार्यो, उपाध्याय व साधु भगवंतो ने इसी सामायिक धर्म की | 486. “विद्याचरण" की आराधना ही मानव जीवन ही सेवना (पालना) की है, करते है और का सार है। बिना ‘चरण' के विद्या अधूरी भविष्य में भी करेंगे। है और बिना विद्या' के चरण लक्ष्य हीन होते है। दिशा-निर्देश ‘मन' को साधना ये 480. मानव सामायिक की आराधना जितनी काम विद्या' करती है। ‘काया' से तपउत्तम, पवित्र, श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर कर सकता चारित्र में अभिवृद्धि होती है। चारित्रतप से है। अन्य जीव चाहे सर्वार्थ सिद्ध का देव आत्म द्युति-चमक (विद्या) बढ़ती ही रहती भी हो तो मुहूर्त प्रमाण 18 पापों का त्याग है। चारित्र के बिना (सामायिक का मार्ग नहीं कर सकता है। चारित्र ही है।) कैवल्य ज्ञान रुपी परम लक्ष्मी 481. बुद्धिमान मानव! जीवन में अनमोल अवसर प्राप्त नहीं होती है। बार बार नहीं मिलता है, “प्रतिदिन एक सारः अनंतानंत तीर्थंकरों से आसेवित, परम सामायिक तो मुझे करनी ही है" ऐसा हितकारी परम कल्याणकारी, परम शांति, संकल्प करें। परम सन्तोष, परम विनय, परम सदाचार, 482. परिवार - पद - परिग्रह, प्रतिष्ठान यही आत्मा-त्राता, आत्म-गवेषक निर्मल, पावन छूटने वाले है, पशुता से दो घड़ी तो बाहर पवित्र, “सामायिक-मार्ग" ही मोक्ष मार्ग आओ। का प्रधान अंग है। तीनों योगों की शुद्धिकरण सामायिक ही करता है। संसार में सामायिक 483. जय जिन धर्म - जय जिनेश्वरों की हो, के (भावों के) आधार पर ही अव्याबाध सुख हमारे भावों में सामायिक से ही पवित्रता - का प्रकटीकरण होता है। परम न्याय, परम आयेगी। तू स्वयं निर्मल' बन जायेगा। तू भाव, परम चारित्र तथा परम तप सामायिक स्वयं 'जिनेश्वर' बन जायेगा। में ही रहते है। 484. अनंत तीर्थंकरों ने जिस महामार्ग (सामायिक पथ) का सेवन किया, क्या वह मार्ग इतना आओ!!! सामायिक रुपी “कल्पवृक्ष" के नीचे हमेशा बने रहे। समता भावों से ही कच्चा हो सकता है? नमस्कार के पाँच पदो सामायिक में निखार आता है। पर श्रद्धा है, तो पीछे मत हटो (हट)। * इति
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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