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________________ [पच्चीस बोल पर स्वाध्याय हेत विशिष्ट | एकेन्द्रिय पर्याय में अनन्त काल तक टिका । कौड़ी के अनन्तवें भाग में तूं बिका है “एक श्वास में 17.5 आत्म - चिंतन बार जन्म-मरण कर चुका" अकाम निर्जरा के पच्चीस बोल को परम्परा से कंठस्थ करने द्वारा विकास हुआ । अनन्त पुण्य से एकेन्द्रिय से का लक्ष्य प्रत्येक स्वाध्यायी के लिये जरूरी समझा बेइन्द्रिय और आगे बढ़ता - बढ़ता सन्नी पंचेन्द्रिय जाता है। तक अब तू पहुँच गया है । हे आत्मन ! तू उत्तम साधना कर सकता है, अतः पुरुषार्थ शुरू कर दे, इन पच्चीस बोलों में जैनत्व की शिक्षा तू जातिवाद से मुक्त हो सकेगा। सारभूत-रूप में समायी हुई है। 3) तीसरा काया छः अनादि संसार में पाँच स्थावर तीनों प्रकार के पदार्थ (द्रव्य) हेय, ज्ञेय व त्रस इन छ: काया के स्वरूप को न समझने के और उपादेय का समावेश भी इनमें है। कारण तू प्रत्येक काया को, शरीर को अपना मान . विशेष बात यह है कि पच्चीस बोल जैन मत कर ममत्व भावों से, कर्मो के रूप से बंधन कर रहा को मानने वाले सभी संप्रदाय-पंथ, मूर्ति-पूजक आदि | है। 'काया और माया' दोनों में फँसा जीव मृत्यु के समस्त समान रूप से मानते हैं अतः यह उचित ही समय भयंकर | दुःखी बन रहा है । पशु-पक्षी, है कि समाज में इन तत्वों का व्यवस्थित रूप से पेड़-पौधे, मनुष्य-देव सभी स-रागी काया - धारी, अलग-अलग भेद-प्रभेद सहित एवं गहराई से चिन्तन काया की ममता से कर्मों का बंधन कर रहे है । हे के आधार पर निरूपण किया जा रहा है, जो प्रत्येक मानव ! सर्व - श्रेष्ठ (मानव-त्रस) काया के द्वारा कर्म . साधक के लिए चाहे वह साधु हो या गृहस्थ उपयोगी करके तू मोक्ष स्थान जिसे “अकाया" कहते हैं, होगा एवं कर्म निर्जरा का कारण बनेगा। उस शाश्वत पद को प्राप्त कर सकता है । 4) चौथे बोले इन्द्रिय पाँच : एक विषय ने जीततां 1 गति-चार : हे आत्मा ! इन चार गतियों में - “जीत्यो सब संसार” इस उक्ति द्वारा पाँच इन्द्रियों परिभ्रमण करते-करते अनंत काल बीत गया, कर्म की परंपरा के वशीभूत बनी आत्मा, कितनी-कितनी के विषयों को जीतने का बोध दिया गया है। रे जीव निकष्ट स्थिति एवं गति में रह चकी है. “एक ! हिरण संगीत से - पतंगिया आग से - भँवरा (फूल में) - मछली माँस लोभ से - भैंसा (जल के अन्तरमुहूर्त में चार गति भी स्पर्श कर चुकी है " शीतल स्पर्श की आसक्ति में) मगर से और हाथी फिर भी इसे शांति का अनुभव नहीं हुआ । अब चार भोगों से भयंकर मौत (बे मौत) मारे जाते है । चेतन गति में मनुष्य गति साधना करने का श्रेष्ठ/ज्येष्ठ चेत ! एक-एक इन्द्रिय के वश होकर जीव जीवन अवसर मिला है । हे मनुष्य ! तेरे जीवन का हर | खो रहे, रो रहे और मर रहे हैं, तो जो प्राणी पाँच पल घटता ही जा रहा है, जो समय जा रहा है इन्द्रियों का भोग प्रतिदिन भोग रहा हो, उस प्राणी वह वापस नहीं आ सकता, अतः जागृत बन ! एवं की कितनी भयंकर गति होगी? यह समझ समझ! स्वाध्याय के द्वारा “तप एवम संयम" में जीवन जोड़ दे। कानों से वीतराग वाणी सुनकर, संत दर्शन, शास्त्र, पढ़कर चक्षु-इन्द्रिय का सदुपयोग कर ले । संवेग 2) जाति-पाँच : समाज में जातिवाद (ओसवाल, भाव पैदा कर । पोरवाल, अग्रवाल आदि) के कारण अहम् में वृद्धि होने से आत्मा का पतन हुआ है । परिणामतः आँख छोटी भले हो पाप बढ़ाने - बंधाने में भयंकर चतुरेन्द्रिय, तेईः, बेईः, एवं अधिक हीन अवस्था । दुर्गति देने में सहायक बनी है - सदा ही । अब जाग
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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