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________________ ! कामी दोनों इन्द्रियों (कान, आँख) द्वारा कर्म निर्जरा के राह पर बढ़ता जा, जागा जब से सबेरा । सर्व जीवों में पाँच इन्द्रियों की एक साथ प्राप्ति महामुश्किल है । अनंत पुण्य से मिलती है । 5) पाँचवे बोल पर्याप्ति छः अहो ! कैसा भाग्यशाली जीव है तू ! सभी पर्याप्ति पूर्ण रूपसे तुझे मिली है । लाखों, करोड़ों, अरबों की संपत्ति से भी अधिक एक पर्याप्ति (शक्ति विशेष) कीमती है । भाषा और मन को व्यवहार व अन्तर दोनों ही कल्याणकारी मार्ग के लिये जोड़। ऐसी पर्याप्ति की शक्ति बारबार नहीं मिलती । 6) छठे बोल प्राण दसः ओ प्राणी ! तेरा नाम प्राणी क्यों? कभी सोचा ! इन प्राणों की शक्ति को, धारण करके, प्राणी बना है तू । सोचो ! अपने सुख के लिए, अपने प्राणों की रक्षा के लिए अन्य अनंत अनंत प्राणों को लूट रहा है । “दूसरों के प्राणों की घात", यही तो हिंसा है । प्राणातिपात से विरमण बनकर पाप से विराम ले ले। अनन्त काल से तुं अनंतानंत प्राण लूट कर "प्राण लुटेरा” बन बैठा । शैतान से इन्सान और इन्सान से भगवान बनने के लिए इन प्राणों का सदुपयोग करके सद्गति प्राप्त कर सकता है । जाग जाग जाग ! - - 7) सातवें बोल शरीर पाँच : जिस प्रकार किरायेदार मकान खाली करके दूसरे मकान में रहने लगता है, वैसे ही जीवात्मा अनादिकाल से शरीरों को धारण करके - इतने शरीर धारण कर चुका है कि यदि ढेर लगादे तो पूरे लोक में समावें नहीं । इतने शव यह जीवात्मा बना चुका है, अब यह शरीर जो जीर्णशीर्ण हो जाना है । इसे जन्म मरण (रहना - खाली करने के समान) से मुक्त बनाना चाहें तो श्रेष्ठ औदारिक (मानवधारी) शरीर साधना करने को मिल गया है। पुण्य से मिला है यह, परन्तु हर पल नष्ट रहा है, इसका क्षय हो रहा है, अतः उपयोग में लावें । शरीर नाशवान है, नष्ट तो होगा ही। बच्चा जवान बने न बने, जवान वृद्ध बने न बने मगर शरीर-धारी को 98 मरना तो पड़ता है । “काल राक्षस” के चंगुल से क्या कोई बचा है ? जरा सोचो। चेतन करले विचार, अब आया अवसर इस बार, मौका बार-बार नहीं मिलेगा। इसी शरीर से किसी गिरे को उठाया जा सकता है और किसी खड़े को गिराया जा सकता है ना ? साधना से गुण-सुन्दरता, भावना से भव कटि और मनुष्यता से मुक्ति, हो जा तैयार..... इसी शरीर का दास बनकर कर्म का बंधन करता ही रहा है, अब शरीर को अपना दास बना । वह तेरे हुक्म में रहे, लेकिन यह सब धर्म की आराधना से ही हो सकता है । 8) आठवें बोल योग पन्द्रह : योगी, योग में मस्त रहता है, भोगी - भोग में मस्त रहता है । मस्त दोनों हैं- फरक, इतना है, एक अंत में रोता है, दूसरा हँसता है । रूप सुन्दर-असुन्दर वैसे ही योग की परिभाषा उत्थान और पतन दोनों क्रियाओं में जुड़ती है । मन, वचन, काया इन तीनों से कर्म का बंधन और मुक्ति दोनों हो सकते हैं । काया से कर्म - 1 सागरोपम, वचन से कर्म 1000 सागरोपम और मन से 70 कोड़ा - कोड़ी सागरोपम का बंध पड़ सकता है। कितनी ताकत है मन की । मन योग-निरोध ( वश) करने का श्रेष्ठ उपाय कवि की भाषा में अति चंचल मन घोड़ा, नित उत्पथ चलता, शिक्षा डोर लगावें वश हो जाता । (उत्तरा 23 अध्याय) सम्यक् ज्ञान के ही द्वारा मन को सदमार्ग मे जोड़ा जा सकता है, अनन्त उपकारी तीर्थंकर परमात्मा का उद्घोष हमें समझाता रहा है - जागो.... सोओ मत । "मन के जीते जीत है मन के हारे हार" । मन से मत हारो सम्यक मार्ग का निर्णय कर आगे बढ़े चलो, निश्चित ही तुम्हारी जीत होगी । अभी तक योगों ने हमे नचाया, मनाया, भटकाया
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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