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________________ है । योग आत्मा के अधीन बने, अब वैसा कर, यही सच्चा पुरूषार्थ है । “अलं कुसलस्स पमाएणं” (आचा.) हे कुशल ज्ञानी पुरुष ! अब प्रमाद से बस कर और वीतराग मार्ग में आगे बढ़ ! नवमा बोल- उपयोग बारह : धर्म की 9) जितनी क्रियाएँ है, उनमें उपयोग की अति आवश्यकता है । उपयोग के अभाव में (शून्यचित्त) वे क्रियाएँ वैसा फल नहीं देती, जैसा मिलना चाहिये । वस्तु का सामान्य / विशेष धर्म “जानना देखना ” उपयोग कहलाता है । हे जीव ! भूतकाल में अज्ञान के उपयोग में अनन्त काल तक रहा है । असन्नी में प्रायः अज्ञान ही रहता है, कोई अपर्याप्त थोड़ी देर के लिये ज्ञानी रह सकता है। सम्यकज्ञान जो पांच प्रकार के है, इनकी प्राप्ति असन्नी अवस्था में नहीं हो सकती है । प्रबल पुण्य से सन्नी का भव तुम्हें मिला है, फलतः उपयोगी विवेकी बनो । धर्म वाड़ी नहीं निपजे, धर्म न हाट बिकाय धर्म उपयोगे (विवेक) निपजे, जे करिए ते थाय ॥ 10) दसवाँ बोल कर्म आठः जैन धर्म सिद्धान्त में से यदि आठ कर्मो को निकाल दिया जाए तो कुछ नहीं बचेगा । हमें कर्मवाद का गहन अध्ययन करना ही होगा। ज्यों-ज्यों एक-एक कर्म का स्वरूप बंध, उदय, उदीरणा व सत्ता आदि अनेक कारण (माध्यम) से हमें बोध-समझ आयेगी, तो हमारी धर्म श्रद्धा गहरी होती ही जाएगी। हमें कषाय में आनंद नही आयेगा, वीतराग भावों में आनंद की अनुभूति होगी । कषाय भावना में “जगवासी घूमें सदा मोह नींद के जोर" (भावना अधिकार में) आठ कर्म का मुखिया मोहनीय कर्म और यही मोह, चार गति, चौबीस, दंडक, चौरासी लाख जीव योनियों में आत्मा को भटकाता है । अब इस मोह राजा से अंत पाना है । अनंतकाल से मोह 99 (शराब मदिरा) के नशे में बेभान आत्मा जो, अनंत शक्ति, अनंत गुणों की धारक है, दबी पड़ी है । अपनी शक्ति पहचान ! पुरुषार्थ कर और जागृत बन ! तो सारे चोर भाग जाएंगे। कर्म का बंधन कैसे ? किन कारणों से होता है ? कर्म बंध का उदय होगा ही । बंध-उदय में फँसा निरंतर खौलते पानी के समान अशांत बना हुआ है । प्रत्येक सरागी जीव प्रायः सात कर्म और असंयति तो सात / आठ कर्म बांधता ही रहता है। आयुष्य कर्म जिंदगी में एक बार बांधता है। अब कर्मवाद को अच्छी तरह समझकर, कर्म से बस कर, अनंतकाल कर्म करतेकर छुटकारा नहीं मिला है। हे जीव ! अकर्मा कब बनेगा ! 11) गुण - स्थान 14 : जीव जिस परिणाम या विचारधारा में रहता है, टिकता है, उन विचारों, अध्यवसायों और परिणामों के असंख्य प्रकार के भेद होते हैं । योग व मोह के निमित्त आत्मा के उत्थान - पतन की चौदह श्रेणियाँ या वर्गीकरण, उत्कर्ष - अपकर्ष को गुणस्थान कहते है । अनादिकाल से निगोद में पड़े हमारे इस जीव की करूणा भरी कथा क्या कहें ? मिथ्यात्व में पड़ा रहा, अनन्त काल बीता, अकाम निर्जरा के माध्यम से आज न मालूम कितने विकसित (साधन रूप) रूप में है । अब हमें जीव का गुण - स्थान नीचे न गिरे, उसके लिये और यदि ( मिथ्यात्वी) अनंतानुबंधी (क्रोध, मान, माया, लोभ) कषाय का जब तक क्षय या क्षयोपशम या उपशमन न हो और आत्मा बाह्य रुपी (पुद्गल) उत्तम इन्द्रिय, सद् बुद्धि आदि प्राप्त न कर ले तब तक धर्म श्रद्धा रूप चौथा गुणस्थान (सम्यक दृष्टि प्राप्त होना अत्यंत कठिन है । अतः भोग दृष्टि, साता दृष्टि, सुख दृष्टि को छोड़कर कषाय अनंतानुबंधी को भेद / छेदकर सम्यक दृष्टि बनना है और उत्तरोत्तर विरति भावों को बढ़ाते हुए व धर्म व शुक्ल ध्यान रूपी तप से अष्ट कर्म क्षयकर (14 स्थानों को पार कर ) सिद्ध गति में जाना है, तो शुरु कर दे आज से उत्तम अध्यवसाय, और पैदा कर गहरी तत्त्व रुचि, जगा, फिर देखो आत्मा का उत्थान अवश्य होगा । हमारी मंजिल हमारे सामने
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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