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है - बस, पुरुषार्थ अपेक्षित है।
वर्ण का यदि चश्मा पहना है तो सब वस्तुएं काली 12) इन्द्रिय विषय (23) विकार (240) : जगत्
ही नजर आयेंगी वैसे ही मिथ्यात्व के प्रभाव से . में चराचर प्राणी विषय विकार के चक्र में घूम रहे है।
सबमें मिथ्या - मात्र नजर आता है। अनुकूल विषय में राग पैदा करने में निमित्त माना है अतः तत्व बुद्धि-सम्यक दृष्टि जब तक पैदा न होगी, और प्रतिकूल विषय, द्वेष का कारण बना है। राग- अज्ञान का आवरण भी नहीं द्वेष के कारणों, निमित्तों को हटाया नहीं जा सकता हटेगा । जैसे मोतियाबिन्द होने पर आँख से नहीं है। अज्ञानता से वे विषय विकार पैदा करते हैं । दिखता परन्तु ऑपरेशन के पश्चात मोतिया-बिन्द शास्त्र देखो ! गजसुकुमाल मुनि, भयंकर उष्णस्पर्श | हटते ही पुनः दृष्टि सुधर जाती है, उसी प्रकार से असातावेदनीय के उदय में भी महा निर्जरा, | अज्ञान का आवरण हटते ही सत्य दिखने लगेगा । महापर्यवसान (कर्मों का) करके मोक्ष पद प्राप्त कर अनन्तकाल से आत्मा पर मिथ्यात्व (अज्ञान) का लिया । हम भी घबराएं नहीं । लालबत्ती, हाइवे मोतियाबिन्द आया हुआ है। के चिन्ह, चालक को संकेत देते है। जैसे अच्छा
सत्संग, संतो का संग, निर्ग्रन्थ प्रवचन, हमारी चालक सकुशल गंतव्य स्थान पर पहुँचता है, वैसे
कुश्रद्धा को बदल सकते हैं। हम ही बदलेंगे-ऑपरेशन ही संसार के विभिन्न विषयों में आसक्त न बना
डॉक्टर करता है, वैसा यहाँ नहीं होता। स्वयं रोगीहुआ जीव आत्मा, संसार पार हो जाता है । वही
स्वयं डॉक्टर और स्वयं का पुरुषार्थ ही काम आता ज्ञानी, वही पंडित और वही कुशल पुरुष है । “सुख के रागी को भविष्य में दुःख ही मिलने वाला है । दुःख के द्वेषी को सच्चा सुख स्वप्न में भी
बस ! नजरें बदली तो, नजारे बदल जाते है। नहीं आ सकता है".।
किश्ती को मोड़ो तो, किनारे बदल जाते हैं। तो हम खोजें चोर को, जो हमारे ही भीतर बैठे हुए
14) नव तत्त्व : नव तत्त्व क्या है, कभी सोचा है? हैं । बाहर के चोर जल्दी पकड़े जा सकते हैं। ऐसे
मैं कौन हूँ, विचारा है? एकांत कोने में बैठ, कभी ही आत्मा में छुपे अज्ञान, राग, द्वेष, मोह रूपी
अन्दर की दुनिया में चेतन गया है? चोर बैठे हैं, उन्हें निकालने पर ही सुखी बना जा उत्तर : नहीं ! कारण क्या है ? हमें (तुम्हें) डर सकता है।
लगता है। हमें भय लगता है | अन्दर भयंकर ज्ञानी कहते हैं “जाणई पासई" ज्ञाता दृष्टा बनो,
गहराई निशांत, नीरव अकेलेपन का नाम सुनते ही मोह-बुद्धि से जुड़ो मत । परम भाग्यशाली हैं हम
मन कांपने लगा है, है ना सत्य ? कभी सुनसान कि सच्चा मार्ग मिल गया। तो- अब देर न करें...
जगह में कोई जा रहा हो तो, जोर-जोर से गाता लो चलो उस मार्ग पर ..... जिस मार्ग पर अनन्त
है, चिल्लाता हुआ, गाते देखा है ? सोचा तीर्थंकरों ने...आचार्यों ने, मुनि भगवंतो ने, चरणों
है ? सोचा है कभी? से उसे पवित्र किया और पतित पावन बन गए..... कारण क्या है ? इसका कारण हमें पता है - जानते उठ जाग रे मुसाफिर अब हो चुका सवेरा...... हैं। सुनसान जंगल में गाना, चिल्लाना जैसी क्रियाएँ 13) मिथ्यात्व : जो जैसा है, उससे विपरीत, न्यून
हमारे अपनेअंदर के भय को घटाती हैं । है न सत्य या अधिक मानना व समझना ही मिथ्यात्व है। जीव
| - हकीकत हमारे जीवन की। का स्वभाव ऊपर ही उठना है, परन्तु दृष्टि विपरीत हम कभी भीतर उतरना ही नहीं चाहते हैं, भयभीत होने से सब गलत दिखता है | सत्य को असत्य | रहते हैं। क्या पता क्या हो गया है हमें ? समुद्र से मानता है, असत्य को सत्य मानता है । जैसे-काले । मोती चाहिए, किनारे पर बैठकर मोती नहीं मिला
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