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________________ हो। 78. उपशम भाव जहाँ अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशम | 90. उपरोक्त चार भावों की निरन्तर वृद्धि ही अवस्था में हो, पुनः मोह का उदय होता भाव सामायिक है। ही है। 91. अनंतानंत जीव मात्र "भाव सामायिक से ही 79. क्षयोपशम भाव = इस भाव में लम्बेकाल मोक्ष गये है", जैसे मरुदेवी माता। बिना तक सामायिक में रह सकता है, जिस भाव भाव से (निश्चय नय) सामायिक मानता ही में चारित्र मोहनीय का “क्षयोपशम” हो रहा नहीं है। 92. सामायिक में “सावध योग त्याग" यही 80. भरत चक्री की 'भाव' सामायिक क्षायिक' चतुर्विध संघ का प्रधान करणीय कर्म है। भावों में हुई। 93. धर्म तीर्थ की स्थापना में सावधयोग का 81. गजसुकमाल मुनि क्षयोपशम भावों की त्याग, इसी आधार पर तीर्थ व संघ संरचना सामायिक से होते हुए क्षायिक भावमें गये। होती है। 82. उपशम श्रेणी के सामायिक वाले गिरकर के 94. सामायिक अर्थात सावद्य योगों का त्याग ही मिथ्यात्व तक पहुँच सकते है। उपशमन करना नमस्करणीय है। और क्षय करने में अन्तर होता है। 95. भावशुद्धि हमारा लक्ष्य या साध्य है, परन्तु 83. भाव शुद्धिः अर्थात मन, वचन, और काया द्रव्य, क्षेत्र व काल ये तीनों शुद्धि हमारी का शुद्धि करण, इन तीनों की शुद्धिकरण सामायिक के साधन हैं। .. का अर्थ इनकी एकाग्रता से है। निर्मलता 96. एकेन्द्रिय जीवों मे सावद्य योगों का त्याग से है। नहीं होता। अत एव वंदनीय नमस्करणीय 84. योगों की एकाग्रता कषायों की मन्दता पर सावद्य योगों के त्यागी ही होते हैं। ही निर्भर है। 97. तप संयम व्यवहार मोक्ष मार्ग है और तप 85. जिस प्रकार चुल्हे पर पानी चढ़ाया और संयम से भावित आत्मा निश्चय मोक्ष मार्ग अग्नि निरन्तर बढ़ा रहे है, तो क्या पानी शीतल होगा? नहीं। उसी प्रकार योगों में 98. तीर्थंकर तीर्थ स्थापना करते हैं परन्तु एकाग्रता व शुद्धिकरण तभी होगा जब हमारे कहीं पर भी आगमों में यह वर्णन नहीं है कषाय शान्त हो या शांत हो रहे हों, यही कि “तीर्थंकर प्रवचन! देशना देने के पूर्व" भाव शुद्धि का अभिप्राय है। नमो तित्थस्स यानि तीर्थ को वंदन करते 86. क्रोध की जगह क्षमा गुण का सेवन करते रहना सामायिक है। 99. सामायिक पूर्व - उत्तर दिशा या गुरु मुख 87. लोम की जगह संतोष गुण का सेवन करना। के सामने करनी चाहिये। पूर्व व उत्तर दिशायें 88. मान की जगह विनयगुण का सेवन करना। को शुभ मानी गई हैं। .89. माया की जगह सरलता गुण का सेवन | 100. सामायिक की भाव शुद्धि में कषायों की करना। उपशांतता अति जरुरी है, उसके बिना
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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