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61. चित्त में अशान्ति व बाधाएं उत्पन्न न होवे, ऐसे काल में सामायिक करना चाहिये। “काल काले समायरे”
62. जैन शास्त्रों में साधु के लिए कठोर अनुशासन के अन्तर्गत यदि ग्लान- रोगी साधु की खोज (गवेसइ) नहीं करता है तो चातुर्मासी 'परिहार तप' का प्रायश्चित आता है, दण्ड का विधान
63. सोचें ? आज परिवार में रहते हुए रोगी की उपेक्षा करे, यदि सेवा धर्म छोड़ता है, तो दण्ड नहीं मिलेगा क्या?
64. सेवा धर्म महान है। सेवा धर्म गहन-गति बताया है।
65. सेवा (वैयावच्च) से तीर्थंकर नाम गोत्र का बंध होता है। सेवा में सामायिक के ही भाव छिपे रहते है।
66. यदि घर में कोई बीमार है, सेवा करनेवाला कोई नहीं है, तब भी सेवा छोड़कर सामायिक करने बैठ जाना, यह प्रथा उचित नहीं है। अतः एव काल शुद्धि के समय जरुर देखना चाहिये कि “किसी को मेरी सेवा की जरुरत तो नहीं है। "
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68.
भाव शुद्धि में (मुझे कैसे विचार करने चाहिय ?) मन ही मनुष्यों के बंध और मोक्ष का कारण है, इसे ज्ञान से जागृत बनाकर सोचना चाहिये कि अभी मेरे सामायिक है, मुझे कैसे विचार करने चाहिये?
"एक सामायिक का काल मान" जावनियम के स्थान पर एक मुहूर्त (48 मिनिट) या दो घड़ी प्रमाण आचार्यों ने नियत किया, जिससे कि एक रुपता बनी रहे।
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69. प्रत्याख्यानों के वर्णन में भी टीकाकारों ने मुहूर्त प्रमाण माना है।
70. “अन्तो मुहूत कालं चित्तस्सेग्गमया हवईझाणं” यहाँ शुभ ध्यान काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही माना गया है, 48 मिनिट में क्षण मात्र भी कम हो तो अन्तर्मुहुर्त ही माना है, सामायिक का काल पूर्वाचार्यों ने एक नियतकाल गृहस्थ के लिए मुहूर्त ही किया है।
71. मुहूर्त का नियम नहीं होता, तो कोई पाँच कोई दस मिनट आदि विभिन्न समय व अनियतता से एक रुपता में बाधाएं खड़ी होती है।
72.
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी काल मर्यादा अति आवश्यक होती है, उसके बिना उपेक्षा व शैथिल्य भाव भी आ सकते है।
73. सामायिक की काल मर्यादा पर जितना ध्यान दिया जाता है। आज उसकी अपेक्षा सामायिक में भावों की शुद्धि, मर्यादा, वचन व गमनागमन की मर्यादा पर ध्यान अधिक से अधिक देने की जरुरत है। बिना भावों से द्रव्य सामायिक होती है।
74. काल शुद्धि के साथ साथ द्रव्य-क्षेत्र शुद्धियाँ भी सामायिक की बनी रहे, परन्तु भावशुद्धि पर विशेष ध्यान देना ही चाहिये।
75.
भाव शुद्धि के बिना उपरोक्त तीनो शुद्धियें कहीं हमारी निरर्थक न हो जाये। तीनों शुद्धियाँ अनंत बार कर चुका है।
76. भावों की शुद्धि में प्रधानरुप से तीन भाव माने गये हैं।
77. क्षायिक भाव = जहाँ 'चारित्र मोहनीय' का क्षय हो चुका है।