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________________ 56. चित्त की चंचलता में बहुत बड़ी वृद्धि हुई | 65. जैन धर्म की पहिचान “रात्रि भोजन त्याग” उस सिद्धान्त को छोड़कर आप लोगों ने. 57. हाई-ब्रीड़ के समान ही आज के बच्चों की “पैसा पाया परन्तु शरीर गंवाया" यानि दिमागी (तेज गति) सोच बहुत बढ़ गई है, रोगों को आमंत्रित ही किया। और सहन शक्ति घट गई है। 66. खाने-पीने की अमर्यादा से युवावस्था में 58. प्रदूषित हवा पानी से शरीर में एक बार ही शरीर बढ़ने की वजह से तोंद रुप' बीमारी प्रवेश होने के बाद निकलने में धारण कर लेते है। दूरदर्शन भी एक कारण कठिनाई होती है। 59. “सौ दवा एक हवा" इस कहावत में शुद्ध | 67. आज जितना अपमान अन्न का हो रहा हवा की ताकत बताई गई है। है, शायद हजारों वर्षों में भी पहले नहीं 60. औषधियों का शुद्धिकरण लोभ के कारण | हुआ। घटता जा रहा है। | 68. शारीरिक रोगों के उत्पन्न होने में जितने विजय चोर = शरीर, धन्नासेठ = आत्मा, ‘बाह्य' कारण है उससे ज्यादा मूल कारण शेठपुत्र रत्न = सद्गुण । ज्ञाता धर्म कथा कषाय सेवन है। में प्रभु महावीर ने साधु साध्वियों को उपदेश 69. “सुख दियां सुख होते है दुःख दियां दुःख देते हुए कहा था कि हत्यारा विजय चोर ने श्रेष्ठी पुत्र की हत्या की थी, फिर भी होय” यही दुःख आने का प्रधान ब्रह्म वाक्य "आवश्यक क्रियाओं” के कारण धन्ना श्रेष्ठी को (विजय चोर को) भोजन देना पड़ा था। | 70. मशीन व मनुष्य में बहुत अंतर है। मशीन अतः शरीर को भोजन इसलिए देना पड़ता जड़ है परन्तु शरीर तो आत्मा को पुण्योदय है कि संयम पालने में बाधा न पड़े तथा से मिला साधन है। शरीर का मर्यादा से शरीर साधना में सहयोगी बन सके। अधिक उपयोग भी बीमारी आने का कारण 62. वर्तमान काल में भोजन जो आरोग्य का है। मशीन तो जड़ है, अतः उसे दुःख आवश्यक अंग है वो आज प्रदर्शन-अशुद्ध सुख का वेदन नहीं होता है। एवं मर्यादाहीन होता जा रहा है। 71. सहनशक्ति बढ़ाने से बढ़ती है व घटाने से 63. पहले शरीर से पसीने के रुप में जहर घटती है। बाहर निकल जाता था, पर आज 72. प्रभु महावीर ने कहा है कि “यतना" से खड़े लक्जीरीयस जीवन (रईसी) जीने के कारण हो, चलो, बैठो, सोओ भजन करो एवं पसीना बाहर निकलने ही नहीं देते है। भाषण करो तो, हे संयती। तेरे पाप कर्म का 64. “खाना माँ के हाथ से चाहे जहर ही क्यों बंध नहीं होगा सारे दुःख और रोग पाप से न हो" यह कहावत आज तोड़ने से भोजन ही तो आते है । अतएव पाप से बचने के में भाव खत्म हो रहे है। लिए यतना (विवेक धर्म) का सेवन करो।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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