________________
73. रोग और शरीर (दोनों) परस्पर जुड़े हुए है।
74. जैन शास्त्रों में पांच शरीर होते है - यथा
A) औदारिक शरीर सड़न गलन तथा बाहरी शरीर कहलाता है ।
भिण्डी की तरह होता है। ये शरीर तिर्यञ्च व मनुष्य गति में पाया जाता है।
B) वैक्रिय शरीर विविध रूपों का ( दृष्यअदृष्य आदि रुप) आकृतियों को बनाता है। वैक्रिय-वैक्रिय पुद्गलों से बनता है। नारकी - देवता में जन्म से ही होता है। मनुष्य तिर्यञ्च को लब्धि से हो सकते है।
-
C) आहारक शरीर - चौदह पूर्व धारी मुनिराज एक हाथ का पुतला बनाकर शंका आदि निवारणार्थ तीर्थंकर के पास भेजते है, उसे “आहारक शरीर” कहते है।
D) तैजस शरीर उष्णं पुद्गल, चमक तथा भोजन पाचन में सहयोगी तथा तेजोलेश्या शीतल लेश्या लब्धि में उपयोग होता है।
-
E) कार्मण शरीर आठ कर्म की तिजोरी समान, जो आठ कर्मो के खजाने ( कार्मण शरीर रुपी) को कहते है।
-
-
75. शरीर अंगोपांग आदि 'नाम' कर्म के उदय से मिलते है।
76. “धुणो कम्म सरीरगम्” सूत्र के न्याय से प्रभु ने कहा है कि हे भव्यो ! कर्म रूपी शरीर को धुनों (धोओ) अर्थात् आठ कर्मों में मोहनीय
199
कर्म को क्षय करने धुनने का संकेत दिया है।
77. शरीर में जब तक जीव है, तब तक ही उससे सम्बन्ध रहते है । जीव निकलने के बाद पुद्गलों की ढ़ेरी है। सड़न गलन व दुर्गन्ध-रागादि न फैले अतएव “जलाना” आदि क्रियाएँ करते है।
78. रुप-यौवन क्षणिक है। शरीर धारी के पीछे तीन दुश्मन मानो लगे ही रहते है। 1) रोग 2) बुढ़ापा 3) मौत।
79. शरीर का क्षय होवें, उससे पहले हे मानव!
तू अपने मोहनीय कर्म को क्षय करने का निर्णय कर! मोहजीत बने बिना किसी को मोक्ष नहीं होता है।
80. शरीर भी कर्म जन्य एक मशीन है। जिस प्रकार मानव निर्मित यन्त्र ( मशीन) की भी सार सम्भाल व्यवस्थित रखनी पड़ती है, तभी वह मशीन अच्छी सेवा देती है ना? उसी प्रकार कर्म-जन्य निर्मित मानव शरीर की भी सार संभाल ऐसी होवे कि वह हमे “साधना” में निरन्तर सहयोग देती रहे। हम बराबर सार संभाल करे नहीं, जो जो बीमारी आने के कारण है, उन्हें बार बार सेवना करते रहे और हम समझे कि हम जो कुछ कर रहे है ( रात में जागरणअधिक भोजन व अधिक बैठना आदि) हम ठीक कर रहे हैं, तो यह हमारी झुठी भ्रमणा है।
81. प्रभु महावीर ने आत्मा के साथ साथ शरीर
को भी रोग मुक्त कैसे रखा जाय। फिजीकल व इमोशनल दोनों दृष्टि से समझाया है। 82. राजसिक व तामसिक भावों मे रोगों की उत्पति शीघ्र होती है।