SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पशु कौन? मानव कौन? | समाधि की इच्छा तक न की, अनुकंपा दया, विनय सेवा, क्षमा, सरलता, संतोष, सत्य, सत्यधर्म, दुल्लहे खलु माणुसे भवे - बहुत दीर्घ, बहुत केवली वाणी, नियम व्रत तपस्या, ज्ञान आराधना, विस्तृत बहुत दूर, बहुत लम्बे रेगिस्तान में, वन दर्शन व चारित्र आराधना की, आत्म विकास की, में, सागर में अनादि काल से इस जीव ने कभी भी इच्छा, रूचि,प्राप्ति, बुद्धि सोच तक न की, जन्म सुखकारी विश्राम नहीं पाया, ज्ञान रहित, गुण जन्म में इन सर्व गुणरत्नों से रहित पशु समान रहित,मोह अंधकार में ही भटकते हुए, अनंत जन्म मोह, लोभ, नाच, गाने, स्वाद, सुगंध, सैर यात्रा पाए, अनंत बार मरण पाए, रोग भूख प्यास प्रहार प्राप्त होते ही उधर ही उधर बिना पैंदे के लोटे अग्नि शीत ताप संताप आदि दुखों की ही आग में | समान लुढ़कता रहा । अंश भी भूख, प्यास, रोग, जलता रहा; अनंत काल में भी अनंत जन्म मरण पीड़ा,कटुवचन, अपमान को सहन न कर शीघ्रता, करके भी मनुष्य का जन्म पाना कठिन है, उसे भी उतावलेपन, छीना झपटी, हिंसा, निंदा, वैर, कलह, पाकर कभी भी दुःखो का अनुभव करते हुए दुःखों युद्ध भाव से युक्त होकर मानव की देह पाकर भी के कारणों की ओर बुद्धि का विचार न हुआ, पहले | मानवीय गणों से रहित हआ गली गली में पर्वतो समान सी सुखदायी लगने वाले, परन्तु महादुखदायी वनों सागरों में घूमने भटकने वाले सर्वथा शरण मोह के प्रवाह में नदी के जल में काष्ठ के टुकड़े के रहित पशपक्षियों सर्पो, जल के मच्छ, 'आदि समान, बहते हुए दुर्लभ मोती समान, सर्व मनुष्य प्राणियों के समान, वही वही अशुभ घृणित प्रवृत्तियाँ जन्म व्यर्थ गवाँ दिए । ग्रीष्म ऋतु में धूप काल में करता रहा, जिनका कि अंत आना अतीव अतीव प्यासे मगों को जल का भ्रम कराने वाली मुग कठिन दुष्कर है । लज्जा आदि सुगुणों से रहित मरीचिका के समान यह जीव महाभ्रमकारी मोह धर्म के उत्तम गुणों से रहित हुआ, पाप पर पाप, सागर से कभी बाहर निकलकर वास्तविक जल कर्म पर कर्म का संचय करता हुआ, पाप कर्मों के युक्त तालाब रूप सच्चे सुखकारी ज्ञान को, गुणों भारी-अतिभारी, लोहे, सीसे से भी अनंतगुणा भारी, को न जान पाया । न देख पाया, न ही अनुभव कर गठरी को सिर पर उठाकर, महाभार के नीचे पिचका पाया । कितना गहरा है, यह मोह अंधकार मोह हुआ, दबा हुआ, मसला रगड़ा जाता हुआ, मानव सागर? इसने जीव को सदा ही अंधकार के गर्त में के अनमोल मोती समान, स्वर्ण, हीरे, रतन समान, फैका है, एक भी रोशनी की किरण तक नहीं दिखने इनसे भी अनंत गुणा अधिक कीमती जन्म को खोकर, दी । “चढ़ उत्तंग जहां से पतन, शिखर नहीं वो पशु पक्षी, कीड़ा मकोड़ा, मच्छ कच्छ, पृथ्वी पानी कूप | जिस सुख अन्दर दुःख बसे वो सुख भी वनस्पति आदि के जन्म पर जन्म पाता रहा । दुःख रूप" || “मोह अज्ञान मिथ्यात्व को भरयो अग्नि महाग्नि, तलवार आदि शस्त्र, प्रहार, रोग अथाग । वैद्य राज गुरू शरण से, औषध मांसउतारना, कैद, भूख प्यास शीत लू आदि के वे ज्ञान वैराग' || आत्मिक रूप से दृष्टि रहित अंधता, दःख बार बार अणंतबार पाता रहा | “जावन्त अंधकार, अपंग अवस्था, कैद, भुलभुलैया, भ्रम, अविज्जा पुरिसा, सब्बे ते दुःख संभवा...||" भटकाव, मृग मरीचिका, लक्ष्य रहितता को प्राप्त “जे केई सरीरे सत्ता..सब्वे ते दुक्ख संभवा" || हुए इस जीव ने कभी भी शील की सुगन्ध, स्वच्छता, अज्ञानी जीव, देह के कार्यो, वर्ण आदि में आसक्त शील की सुन्दरता पवित्रता, शील की शान्ति सुख जीव इस संसार में सब प्रकार के दुःखों, अति तीव्र
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy