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________________ 220) दुःख में हमारे धैर्य, सहनशीलता व धर्म | रहित होकर श्रद्धा भाव से परमात्मा के निष्ठा की परख होती है। प्रति संपूर्ण समर्पण करके जो जीवन पथं 221) दुःख की घड़ी आत्म निरीक्षण, आत्ममंथन पर कदम बढ़ाते हैं, उनका ही जन्म और का समय है। जीवन सार्थक है। 222) सुख और दुःख की अनुभूति हमारी अपनी 231) आत्म बल ही सर्वश्रेष्ठ बल है। ही मनः स्थिति का प्रक्षेपण है। 232) धर्म को प्रधानता देने व सांसारिक विषयों को गौण करने से 'आत्मशक्ति' बढ़ती है। 223) पुत्र जन्म पर खुश होना, व पुत्री जन्म पर उदास होना, संपूर्ण नारी जाति का अपमान 233) मनुष्य भव भगवान बनने के लिए, तन तिरने के लिए व शरीर सर्वत्र बनने के लिए मिला 224) जन्म लेने से पूर्व ही किसी जीव की हत्या कर देना, जघन्य दुष्कृत्य है । वह जीव 234) जिस घर में बुजुर्गों की सेवा व सम्मान कोर्ट में मुकदमा दायर नहीं कर सकता, नहीं होता उस घर में शांति और सामंजस्य किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि उस दुष्कृत्य नहीं होता। की सजा नहीं मिलेगी? अपने दुष्कर्मो का 235) जन्म जन्म की तृषा सांसारिक सुख रूपी फल देर-सवेर अवश्य मिलता है। ओस चाटने से शांत नहीं होगी, उसके 225) इच्छाएँ दुःख का मूल है । अधिकांश लोग लिए तो जिनवाणी रूपी सत्य की शीतल इच्छाओं की तृप्ति के लिए जीवन भर दौड़ते जल धारा ही आवश्यक है। है व अतृप्त इच्छाओं के साथ ही मर जाते 236) अनासक्ति, वैराग्य, धर्मसाधना और तपस्या है । यदि मृत्यु के पूर्व आसक्ति के बंधन टूट के मार्ग पर गतिमान रहने के लिए जायें तो व्यक्ति पंडित मरण को प्राप्त होता आत्मविश्वास अत्यावश्यक है। 237) सेवा और सदाचार भारतीय संस्कृति के 226) 'श्रद्धा' परमात्मा के जगत का प्रवेश पत्र प्राण हैं। 238) सूर्य का प्रकाश तो दिन भर के लिए पृथ्वी 227) श्रद्धा हो तो परम सत्य का साक्षात्कार को आलोकित करता है, किंतु जिनवाणी किया जा सकता है। का आलोक मनुष्य को अनवरत हर पल 228) जिस हृदय में श्रद्धा उमड़ती है उसका उपलब्ध रहता है। जीवन रूपांतरित हो जाता है, उसकी जीवन 239) जैसे भोजन की चर्चा मात्र से पेट नहीं दृष्टि बदल जाती है। भरत। उसी प्रकार केवल धर्म कथा,संत 229) कषाय आदि क्षुद्रताओं में उलझा मनुष्य प्रवचन सुन लेने से आत्म कल्याण नहीं हो सत्संग में पहुँच कर भी सत्य के संग नहीं सकता। हो पाता। 240) संघ रूपी नगर की रक्षा के लिए चारित्र 230) समदर्शी, समताभावी, कामना रहित, भय । रूपी प्राकार (पर कोटा) अनिवार्य है ।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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