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________________ 196) ज्ञान आत्मा का सार है। 209) मन की कठोरता बड़ी भयंकर है। यह 197) जिसमें संवर और निर्जरा है, वही मनुष्य की सहजता, सरलता व जीवंतता आचरणीय धर्म है। को नष्ट कर देती है। 198) अध्यात्म मार्ग में सफलता पाने के लिए 210) कर्म सिद्धांत न्याय का सिद्धांत है। राजा बच्चों जैसी सरलता और निर्दोषता होनी हो या रंक इसमें किसी के साथ अन्याय नहीं होता। चाहिए। 199) कर्म बंधन को तोड़ कर स्वयं को मुक्त 211) मन यदि इन्द्रियों के पीछे भागता है तो करना ही धर्म साधना का लक्ष्य है। भिखारी बन जाता है, यदि मन पर ज्ञान का अंकुश लगा दिया जाए तो मन राजा 200) भीतर की शक्ति को न पहचानने के कारण बन जाता है। मनुष्य कर्मों के सम्मुख दीन हीन बना हुआ है | यदि आत्मिक शक्ति का प्रयोग किया 212) भाषा आदमी के मन के विचारों का जाए तो मुक्ति दूर नहीं है। दर्पण होती है। 201) सत्संग रूपी नौका में सवार होकर मनुष्य 213) अच्छे संस्कारों से जीवन आदर्श बनता है। भव सागर के पार जा सकता है । 214) ज्ञानी के लिए मृत्यु जीवन की पूर्णता है व 202) वर्तमान का शुभ पुरुषार्थ भविष्य का सौभाग्य अज्ञानी के लिए जीवन का अंत । बनता है और अशुभ पुरुषार्थ भविष्य में | 215) लोभवृत्ति मनुष्य को क्षुद्रताओं से ऊपर नहीं दुर्भाग्य बन कर सामने आता है। उठने देती, इसी कारण यह जीव विराट 203) दृष्टि यदि सम्यक् न हो तो अज्ञान के कारण सत्य का दर्शन नहीं कर पाता | मोह और तृष्णा का जन्म होता है। 216) संसार की प्रत्येक चीज अपनी मर्यादा से 204) तृष्णा के वशीभूत मनुष्य अपने सुख से बंधी हुई है । यदि मर्यादा का बंधन न हो सुखी नहीं होता और दूसरों के सुख से तो कोई भी गिर सकता है | बंधन एक दुःखी होता है। प्रकार से सुरक्षा है। धर्म का बंधन हमारी आत्मा की रक्षा करता है। 205) जैसा चिंतन होता है वैसी ही दृष्टि होती 217) जैन धर्म 'कर्म प्रधान' व 'आत्मा प्रधान' है। सकारात्मक चिंतन करने वाला व्यक्ति सदैव सुख का अनुभव करता है, क्योंकि है । यह साधना का पथ है । इसमें वह अभाव को नहीं देखता | नकारात्मक थोड़े'चमत्कारों का दावा करके भीड़ इकट्ठी चिंतन करने वाला व्यक्ति सदैव दुःखी रहता की जा सकती है, लेकिन मोक्ष तक नहीं है क्योंकि वह फूल में भी काँटे देखता है। पहुँचा जा सकता है | चमत्कार आत्म प्रवंचना के अतिरिक्त कुछ नहीं। 206) माँ शब्द में अद्भुत शक्ति है। माँ का नाम ही हमारी सहनशक्ति को बढ़ा देता है। 218) ज्ञान आचरण बन जाए यही चारित्र है। 207) जिनवाणी, जगत उपकारी माँ है । 219) छोड़ने लायक पदार्थों को छोड़ना व धारण करने योग्य को धारण करना यही चारित्र 208) जीओ, मगर संयम से | धर्म है, यही मोक्ष मार्ग है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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