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173) भाव बिगड़े तो भव बिगड़े । 174) यदि भोगवादी संस्कृति का प्रचार यूं ही
जारी रहा तो आनेवाली पीढ़ियाँ विवेकहीन व संस्कारहीन होंगी व पशुवत जीवन
जिएंगी। 175) विज्ञान की अति आधुनिक खोजों ने मनुष्य
के बाह्य जीवन को तो समृद्ध किया है मगर उसके अंतर्जगत में दरिद्रता ही घनीभूत
हुई है। 176) समुचित परिश्रम के बिना विश्राम का आनंद
नहीं लिया जा सकता। 177) बच्चों में सुसंस्कारों का बीजारोपण करके
उन्हें स्वावलंबी बनाना ही माता पिता का
लक्ष्य होना चाहिए। 178) 'धनवान' बनने से अच्छा है 'धर्मवान'
बनो। 179) जैसे छोटे पौधों को आवारा पशुओं से
बचाने के लिए बाड़ लगाना जरुरी है, उसी तरह बच्चों के कोमल, कोरे मन को बुराइयों से बचाने के लिए उन्हें अनुशासित
रखना जरूरी है। 180) अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। 181) जीवन में यदि सुख और शांति पानी है तो
अहंकार को छोड़ना होगा । 182) कर्मवाद एक अटल व प्रमाणिक सिद्धांत
85) सत्य के प्रति जब तक श्रद्धा नहीं होगी, तब
तक सत्य अंतः करण का हिस्सा नहीं, बनेगा और जब तक अंतःकरण नहीं बदलता
तब तक आचरण नहीं बदल सकता । 186) सत्य के साक्षात्कार में मोह सबसे बड़ी
बाधा है। 187) लाखों लोग भी यदि हमारे प्रति शत्रुता का
भाव रखते हों तो हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते लकिन यदि हमारे मन में किसी एक व्यक्ति के प्रति भी वैर भाव रहा तो हमारा
कल्याण नहीं हो सकता। 188) शुभ कर्मों का उदय हो तो सत्संग प्रिय
लगता है। 189) मोह माया के वशीभूत भटके हुए मानवों को
अपने घर अर्थात आत्मा की ओर लौटने
का संदेश देता है पर्युषण पर्व । 190) यदि सवेरा होने के बाद भी हम आँख नहीं
खोलते हैं तो गलती हमारी है न कि प्रकाश
की। 191) भोजन, भक्ति और भोग का प्रदर्शन नहीं
होना चाहिए। 192) अनियमित जीवनशैली व असंयमित खान
पान का असर हमारे तन-मन पर ही नहीं,
हमारी आत्मा पर भी पड़ता है। 193) सड़ना, गलना और नष्ट होना पुद्गलों का
स्वभाव है फिर उनसे कैसा मोह ?
शरीर मरण धर्मा है, उसमें आसक्ति क्यों? 194) धन शरीर आदि साधनों का सदुपयोग करके
हमें अपने आत्मोत्थान का मार्ग प्रशस्त
करना चाहिए। 195) नीति विपरीत होने के कारण ही मनुष्य
द्वंद, तनाव आसक्ति आदि बीमारियों से ग्रस्त है।
183) दुनिया की सारी संपत्ति पाकर भी तृष्णा की
आग नहीं बुझती। 184) अध्यात्म मार्ग में उतावले पन से काम नहीं
चलता। इसमें तो श्रद्धा समर्पण और पुरुषार्थ के सहारे ही मंजिल तक पहुँचा जा सकता