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________________ 44) ज्ञानाच में, मैं खूब उद्यम करूँगा। करते है, तो उनका भी हम तिरस्कार न करें 35) बोधि-दुर्लभ भावना । प्रभु! -ऐसी सद्बुद्धि मेरी बनी रहे । अनंत अनंत पण्योदय से जिनशासन के पाप्ति | 42) दीक्षा ! मानव जीवन में धारण करने योग्य हुई है, ऐसे दुर्लभ धर्म के प्राप्त होने के बाद कर्तव्य यही है, हे आत्मन! तू संसार में ही क्षण मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। बैठा है, संयम रुपी रत्न की प्राप्ति कब करेगा ? हे आत्मन, भवान्तर में आठ वर्ष की पर्याय 36) धर्म-सौंदर्य भावना में मुझे चारित्र मिले, लम्बा संयमी जीवन धर्म महासत्ता के अजब-गजब के प्रभाव से | का पालन करूँ ! क्या हो रहा है, मालूम है क्या ? समुद्र मर्यादा 43) यह औदारिक शरीर धर्म साधना का साधन नहीं छोड़ता, सूर्य से अग्नि नही गिरती । विश्व है, शरीर की ममता में पड़कर तप धर्म की धर्म -सत्ता के सहारे ही टिका हुआ है। आराधना नही करी, मासखमण आदि बड़ी 37) लोक-स्वरूप भावना तपश्चर्या - हे प्रभु ! मै कब करूंगा? मेरी आत्मा अजीव-व जीव से बना हुआ यह पूरा लोक या की, मन,तन, वचन आदि सभी शक्तियाँ विश्व का स्वरूप सर्वज्ञों ने कैसे बताया है? जिनशासन की सेवा में लगी रहे । प्रभु ! धन्य है, सर्वज्ञ की सर्वज्ञता को । ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार 38) मैत्री-भावना और वीर्याचार, ये पांच प्रकार के आचारों से मेरा जीवन सदैव भरा रहे प्रभु ! इस लोक के सभी जीवों के प्रति मेरी मैत्रीमित्रता बनी रहे, सबका कल्याण होवे । । 45) मेरे हृदय रूपी सिंहासन पर से मोह रुपी राजा जल्दी से जल्दी पद च्युत हो । 39) प्रमोद-भावना | 46) क्रोध, मान, माया और लोभ रुपी ये चार गुणवान आत्माओं के गुणों को देखकर मेरे | + चोरों के द्वारा मेरे आत्मा के गुण लूटे जा रहे हृदय में प्रसन्नता बढ़े, ऐसा निरन्तर झरना । हैं। इन कषायों से मेरा छुटकारा कब होगा? बहता रहे । सद्गुणवानों के प्रति प्रमोद भाव से गुणों का प्रवाह मुझ में भी आता रहे, ऐसी | 47) पाँच इन्द्रियों की विषय वासना अभी तक क्षीण मंगल भावना सदा मेरी बनी रहे। नहीं हुई है, मेरी भोग सुख की आसक्ति कब छूटेगी ? प्रभु ! 40) करुणा-भावना 48) आहार.... भय....मैथुन और परिग्रह इन चारों आधि-व्याधि-उपाधि से घिरे हुए प्राणियों, संज्ञाओं में अनादि काल से लिपटा हुआ हूँ दुःखी जीवों को देखकर मेरा हृदय करुणा प्रभु ! इन संज्ञाओं की वृत्ति से कब मुक्त से, अनुकंपा से भर जावे, और सब के दुःख बनूंगा-प्रभु ! जल्दी दूर हो । 49) पानी के प्रवाह की तरह समय निरन्तर बह 41) माध्यस्थ-भावना रहा है, हे जीव ! समय मात्र का प्रमाद मत सभी जीव कर्म के वश है । कर्म के आधीन बना जीव उन्मार्ग छोड़कर, सन्मार्ग स्वीकार | 50) मुझे भव-भव में जिनशासन की प्राप्ति होवे नहीं करता है। ऐसे जीव यदि धर्म की उपेक्षा | प्रभु ! कर।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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