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________________ 51) जब मृत्यु आवे तब, प्रभु के चरणों में लीन रहूँ है, ये तो कर्म को खपाने का त्यौहार है। । देव गुरु धर्म में मन लगाऊँ, विषय कषाय से इसलिए तू वेदना भोगने में व्याकुल, कमजोर मन मुक्त बने, सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव न बनना । कायर न बनना । तीर्थंकरो की रहे, मन मे समाधि और प्रसन्नता बढ़ती रहे । आज्ञा है। 52) चार धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थंकर | 61) हे जीव ! ___ भगवंतो को, मैं भाव से वंदना करता हूँ। स्कन्धक मुनिजी के पाँचसौ शिष्य घाणी में 53) वर्तमान काल में महाविदेह क्षेत्र मे विचरते हुए पील दिए गये थे, परन्तु सभी समता भाव बीस तीर्थंकर भगवंतो को भाव से वंदना करता को धारण करके केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष पधारे, उनको नजर के सामने रखकर समता 54) पापी को भी पवित्र करने वाले ऐसे चतुर्विध धारण कर ! तीर्थं को मैं भाव सहित वंदना करता हूँ। 62) हे जीव ! 55) अढ़ाई द्वीप में रहे हुए सभी साधु भगवन्तों महामुनिराज गजसुकुमाल के सिर पर अग्नि को मैं भाव सहित वंदना करता हूँ। से भरे धधकते अंगारे रखे थे, परन्तु फिर 56) पाँचो पदो को भाव सहित नमस्कार | भी वे समता के झूले मे झूलते रहे ना ? 57) अनंत लब्धि के निधान, अनंत गुणों के भण्डार उनके दुःख के सामने तेरा दुःख, दुःख है श्री गौतम स्वामी को मैं भाव से वंदन क्या ? तू भी समता को धारण कर । करता हूँ। 63) हे जीव ! 58) महामंगलकारी सिद्ध भगवन्तो को भाव से वंदन सीताजी के ऊपर कितने कष्ट आए थे परन्तु करता हूँ |12 गुणों से युक्त देव अरिहंत, फिर भी सीताजी ने कैसी अद्भुत समाधि को 8 गुणों से युक्त देव सिद्ध देव, धारण किया, प्रतिकूलता में समाधि में टिकना ही तेरी परीक्षा की सफलता है। 36 गुणों से युक्त आचार्य भगवंत 25 गुणों से युक्त उपाध्याय भगवंत 64) हे जीव ! 27 गुणों से युक्त साधु भगवंत जो भी दुःख आते है वे सभी अपने ही कर्म के उदय से आते है, इसलिए अपने आमन्त्रित कुल 108 गुणों के धारक पंच परमेष्टी भगवन्तो मेहमान का स्वागत करना चाहिए ना! मेहमान को भाव से वंदना करता हूँ। आते हो तब मुँह नहीं बिगाड़ना चाहिए। 59) हे जीव ! नरक में तुमने भयंकर वेदना को 65) हे जीव ! सहन किया था । सनतकमार जैसे चक्रवर्ती की कंचनवर्णी काया उसके सामने यह बुढ़ापा और रोग का दुःख सामान्य सा ही दुःख है । इन दुःखो को भी रोगों से घिर गई थी, तो तेरी काया में तो प्रसन्नता से भोगने से तूं भव तिर जाएगा। क्या ताकत है ? 60) हे जीव ! रोग आना यह शरीर का स्वभाव है, रोग में तू अस्वस्थ मत बन ! अभी आधि व व्याधि, वृद्धत्व की जो वेदनाएँ ।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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