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एक कदम अपनी ओर द्वितीय सत्र : विषय : आत्मा
असंख्य प्रदेशी चैतन्य प्रदेशों का समूह आत्मा है।
आत्मा में उपयोग गुण होता ही है।
केवलज्ञान - केवल दर्शन ये दो उपयोग परम शुद्ध होते है।
आत्मा अरुपी होने से चर्म चक्षुओं से नहीं देखी जा सकती है।
आत्मा अजर (बुढ़ापा रहित) अमर है। आत्मा के 2 प्रकार :- 1) कर्म सहित आत्मा । 2) कर्म रहित आत्मा ।
आत्मा अविनश्वर ही होती है, शरीर विनश्वर
कर्मो का उदय आत्मा में होने से शुभा शुभ . सुख दुःख (कर्म जन्य) का वेदन करती है।
आत्मा के बिना न संसार, न आत्मा के बिना भवपार |
आत्मा का मौलिक गुण मात्र जानना देखना है परन्तु राग, द्वेष करना, आत्मा में आए विभाव (परिणाम) भावों के कारण से होता
आत्मा का गुण उपयोग है, पर्यायें प्रतिक्षण बदलती रहती है।
12. जीव या आत्मा एक “द्रव्य” है जिसमें गुण पर्यायें रहती है।
13. चेतना “आत्मा” का लक्षण है।
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14. मुक्त आत्माएँ अनंतानंत है। मुक्त आत्माओं से भी संसारी या अमुक्त आत्माएं अनन्त गुणी होती हैं।
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16. संसार में भ्रमण भी आत्मा करती है और मुक्ति भी आत्मा प्राप्त करती है।
17. इस लोका-लोक में से यदि 'आत्मा' नामक तत्व को निकाल दे तो पीछे कुछ भी नहीं बचेगा।
18. सुख - दुःख, वेदना, ज्ञान, अज्ञान सभी आत्मा में ही होते है।
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आत्मा के सामान्यत मोटे रुप में तीन प्रकार कर सकते है 1) बाह्य आत्मा 2) आभ्यन्तर आत्मा 3) परमात्मा।
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नव तत्वों में प्रधान तत्व जीव (आत्मा) ही है।
आत्मा को कोई लोक से बाहर निकाल नहीं सकता है।
कर्म जन्य विकार से आत्मा कभी दुर्जन, कभी सज्जन, कभी पंचेन्द्रिय कभी एकेन्द्रिय आदि पर्यायों में जन्म लेती हैं।
आत्मा अखण्ड व शक्ति पिण्डरुप है। द्रव्य आत्मा - असंख्य प्रदेशी चैतन्य पिण्ड को द्रव्य आत्मा कहते है।
कषाय आत्मा- कषाय भावों में वर्त रही आत्मा।
25. योग आत्मा
प्रवृत्ति ।
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मन वचन और काया की