SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 193. मूर्ख दूसरो के अवगुण देखता है, वह उस | 206. जिस कुटुम्ब में सेवा भावना है, वहां कभी मक्खी के समान है जो मिष्ठान छोड़कर अशांति नहीं हो सकती। सेवा से जीतना गन्दगी पर बैठता है। सीखो। 194. भोग में बंधन है, वियोग में क्रन्दन है, 207. निरंतरता, नियमितता और नियंत्रण के आत्मा में झाँको तो आनन्द का नन्दन वन आधार पर जीवन जिएँ। मर्यादा जीवन का आधार है। 195. भाव धारा की बढ़ोतरी मुक्ति की तरफ ले | 208. एक दोष सैकड़ो दोषो को जन्म देता है। जाती है। पहले दोष से बचे। 196. जो बिगड़ी बनाए और सबको अपना बनाए 209. जीवन का आधार ‘अन्न' है। (शरीरधारी) वो बनिया कहलाता है। अर्जुन माली एक व्यर्थ अपव्यय से बचे। श्रमणोपासक की सहायता से इन्सान बन 210. जिसे आप अपना घर कहते है वास्तव में गया। भगवान भी बन गए। वह रैन बसेरा है। यहाँ वास अनित्य वास 197. क्षमा के गुण - 1) सहन करना 2) क्रोध न करना। 211. दिल की दूरियों को मत बढ़ने देवें। 198. क्षमा से भाव 'धर्म' की उत्पत्ति होती है। 212. मेरा-मेरा कहने वाला अंत में पछताता है। 199. जो खमता है और खमाता है वो आराधक बन जाता है। 213. जूठन छोड़ने का अर्थ (यानि) आपका अच्छा समय समाप्त हो रहा है। 200. जिनसे न बोलना' (झगड़ा) है, उनसे बोलें (झगड़ा खत्म करें)- वही संवत्सरी 214. जूठन छोड़नेवाला, कल अन्न को तरसेगा। को वास्तव में मनायेंगे। परम सुखी बनेंगे। 215. भोजन यतना से करें, जूठा न छोड़े। 201. साधु के 22 परिषह में 20 प्रतिकूल एवं 2 | 216. जिस स्थान पर विकलेन्द्रियों की उत्पति अनुकूल। अधिक होती है, वो यह दर्शाता है कि अविवेक 202. शिविर-शिक्षण की प्रक्रिया से प्राप्त विद्या में तथा दुःसमय आ रहा है। रमण करना। विनय भावों का सम्मिश्रण होना 217. शास्त्रों पर सदैव श्रद्धा रखें। पहले स्वयं को ही चाहिए। स्वीकार करे। 203. जो अहिंसक पद्धति से जीता है उसे आर्य - 218 विराधक के पग पग पर दःख एवं आराधक कहते है। को पग पग पर सुख। दोष छोड़े, क्षमा दे दे 204. साधारण नींद से जगाना और मोह नींद से क्षमा ले ले। .. जगाने में बहुत अंतर है। प्रमाद दोनों है। | 219. दिल से खमत खामणा कर यह जीव 205. जिसका प्रारम्भ है, उसका अंत भी होगा। | आनन्द की अनुभूति करता है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy