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________________ है। 166. जैन दर्शन, 'कर्म प्रधान' दर्शन है। कर्म का | 179. विनय से, विवादों की बढ़ोतरी खत्म होती मर्म समझें। 167. साधु एवं श्रावक का प्रधान सम्बन्ध भोजन 180. जीवन में धर्म को स्थान अवश्य दें। का नहीं, भजन का है। 181. धर्म के लिए समय का इंतजार न करें। 168. वास्तविक सुख सत्संगत से है। सत्संग 182. सुनिए अधिक, बोलिए कम। सेवा कीजिए महातीर्थ है। ज्यादा। 169. पानी एवं वाणी का सदैव आदर करें। दोनों 183. नियन्त्रित स्वतंत्रता, स्वतंत्रता है, का दुरुपयोग न हो। अनियन्त्रित स्वतंत्रता अराजकता है। 170. पाप शरीर के लिए करते है पर भोगना कठोरता से ही दूरियाँ बढ़ती है। आत्मा को पड़ता है। समझदारी का साथ 184. क्षमा करना हमारी 'शाश्वत' परम्परा है। सदैव रहना चाहिए। 185. अभवी जीव के सदा केवल ज्ञानावरण रहता 171. सेवा का भाव तभी जागृत होगा जब मनुष्य सुख के त्याग के लिए तैयार होगा। सेवा से तीर्थंकर पद प्राप्त होता है। 186. एक ही आदमी कई रिश्तों से पहिचाना जाता है। 172. वर्तमान में व्यक्ति की व्यवस्तता के कारण धार्मिक भावनाओं की कमी है। आज व्यवस्तता 187. नवतत्व का ज्ञान प्राप्त करें। नवतत्व का नहीं मशीनरी जीवन है। ज्ञान कुबेर का खजाना है। 173. पुद्गल जड़ के स्थान पर संस्कारो पर 188. काया के तप के साथ मन की क्षमा भी ध्यान देने की जरुरत है। जैसे 18 कुमारों जुड़नी चाहिए। ने युवावस्था में चारित्र लिया। 189. जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है 174. युवावस्था में अत्यन्त सावधानी की सो पावत है। आवश्यकता होती है। 190. उत्तम पुरुषों की वाणी का कुछ भी अंश 175. जो असातावेदनीय का बंध न होने दे, जीवन में उतरने से जीवन सफल हो जाता वही धर्म है। 176. माया, मित्रता तथा प्रीति का नाश करती 191. क्रोध रुपी जहर अत्यन्त खतरनाक है, है। रिश्तों को खत्म करता है तथा शारीरिक मानसिक एवं आत्मिक क्लेश उत्पन्न करता 177. जीवन में कभी भी, किसी के साथ विश्वासघात न करें। 192. मूर्ख अपनी भूल नहीं मानता और 178. मायावी, मिथ्यादृष्टि जीव होता है। विराधक समझदार अपनी भूल को स्वीकार करने बनता है। में संकोच नहीं करता।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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