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392. मोहनीय कर्म ही “संसार की जड़ है", | 402. पुण्य भोगने के लिए नहीं, बल्कि सदुपयोग
जड़े उखाड़ने के बाद संसार रुपी वृक्ष व त्यागने के लिए होता है, ऐसा मानों। धड़ाम से गिर जाता है।
403. मृत्यु के समय भी पुण्योदय रुप शरीर, 393. स्नातक अवस्था “आत्मा” की परम शुद्ध वैभव व पारिवारिक मित्र आदि छूटते ही पर्याय है जहाँ केवल ज्ञान व केवल ज्ञान
है ना। सहित अनन्त शक्ति का प्रकटी करण हो
404. पाप का भोग! सेवन तो, मौत से भी जाता है।
भयानक है। मौत एक बार आती है परन्तु 394. जैन धर्म आत्म कल्याण का मार्ग है, परन्तु पाप तो भविष्य को अंधकार मय बनाता
पहले स्व कल्याण करने की श्रद्धा होनी है, दुःखों का जनक पाप ही है। चाहिए, यदि मात्र प्रचार प्रसार पद के
405. आश्रव में पुण्य पाप दोनों से कर्मों का आना पीछे लगे हुए लोग कल्याण की बजाय होता है। संसार की ही वृद्धि कर रहे है। ज्ञान से ज्यादा चारित्र का प्रभाव पड़ता है।
406. आश्रव को रोकता है “संवर"। जो कि आत्मा
का परम हितेषी प्रथम मित्र है। . 395. नव तत्व का ज्ञान जितना मानव भव में
407. संवर को श्रृंगार मय बनाती है - निर्जरा। सीखा जा सकता है, अन्य गतियों में नहीं।
बिना निर्जरा कर्मो का भार हल्का नहीं होता 396. श्रुत ज्ञान की आराधना नव तत्वों के ज्ञान ___ से ही होती है।
408. बंध और मोक्ष दोनों के अर्थ कहते हैं कि 397. ज्ञान परलोक में भी 'साथ' जाता है।
संसार में बांधे रखता है - वो तत्व है 398. पथ का प्रदर्शन 'ज्ञान' ही करता है।
बंध! मोक्ष का अर्थ कहता है कि संसार 399. नव तत्वों का ज्ञान प्राप्त करना और नव
से मुक्ति । परम चरम अवस्था शुद्ध जीव
भगवान और सिद्ध परमात्मा, स्वस्वरूप तत्वों पर श्रद्धा करना, दोनों विषय अलग
का सदा सदा के लिए "प्रगटी करण" अलग है।
(“नमो सिद्धाणं") ज्ञान आत्मा का विषय है। 400. जीव को अपना मानो “जीव को कल्याण"
भवभव तक साथ रहता है। केवलज्ञान होने में जोड़ना ही जीव के प्रति सच्चा लगाव के बाद आवरण कभी नहीं आता है।
409. जैन अर्थात - नव तत्वों का जानकर व 401. अजीव को मात्र जानों, इसको अपना मानना
उनपर (नव तत्वों पर) श्रद्धा करने वाला ही जीव के महत्व को घटाने समान है।
व शक्ति आधारित आचरण करने वाला।
जो उदयकर्म के अधीन कार्य कर रहा है, उसे 'दोषित' कैसे कहा जा सकता है?
उसको 'दोषित' देखना ही हमारा 'दोष' है।