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________________ 372. एक जीव का मोक्ष होते ही अव्यवहार राशि का एक जीव - व्यवहार राशि में आ जाता है। 373. सिद्ध परमात्मा को तीर्थंकर भगवान भी दीक्षा ग्रहण करने से पहले नमस्कार करते है, साधु की साधना ही सिद्ध पद तक पहुँचाती है, चारित्र - तप धर्म मोक्ष पहुँचाने के अनिवार्य अंग है। ज्ञान-दर्शन चारों गति में मिलता है। 374. एक सिद्ध की अपेक्षा स्थिति सादि-अनन्त होती है अर्थात् जिसकी आदि है परन्तु अन्त नहीं। 375. सभी सिद्ध भगवन्तों की अपेक्षा स्थिति अनादि-अनन्त कहना। 376. सिद्ध भगवान के पास पृथ्वीकाय के पिण्ड को भी सिद्ध - शिला कहा जाता है। सिद्धों के पास होने से। 377. 45 लाख योजन लम्बाई व चौड़ाई बीच में जाड़ी (मोटी) 8 योजन है तथा किनारों पर मक्खी के पंख जितनी पतली है। ये सिद्धशिला आठवी पृथ्वी है। 378. सिद्ध शिला सफेद सोने (अर्जुन सोना) की है। 379. 15 प्रकार सिद्धों के (यहाँ से किस रूप में ये बताए है) 14 भेद भी बताए है। 380. स्त्री लिंग, नपुंसक लिंग व पुरुष लिंग से मोक्ष माना है, परन्तु वेद (वासना) से अवेदी ही होते है। 381. सिद्ध भगवान कर्म रहित भगवान है, वे मोह रहित हैं, पुनः संसार में अवतार नहीं लेते है। 241 382. सम्यक् दृष्टि जीवों व श्रावकों का लक्ष्य तो सिद्ध बनना है, अंतराय आदि कर्मों के उदय होने से वे पुरुषार्थ (चारित्र ग्रहण रुप) करने में मंदत्तम होते है। परन्तु वे सम्यक्त्व की भी उत्कृष्ट आराधना करके आराधक बन सकते है, वे 15 भव में मोक्ष जा सकते है, सभी अनंतानंत सिद्ध परमात्मा, अनन्त - अनन्त अव्याबाध सुख में लीन है, उनमें मात्र आत्मिक सुख होता है। 383. चतुर्विध संघ में नव तत्वों के ज्ञान से ही गरिमा और धर्म में वृद्धि होती है। 384. नव तत्व की श्रद्धा से समकित की प्राप्ति होती है। 385. समकित से देश विरति गुण प्रगट होता है। 386. देश विरति से सर्व विरति आती है। 387. सर्व विरति में निर्जरा संवर की प्रधानता होने से धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान हो जाता है। 388. शुक्ल ध्यान एक महान तप है यथा वर्धमान परिणामों में क्षपक श्रेणी आरूढ़ हो जाता है। 389. क्षपक श्रेणी एक ऐसी भाव श्रेणी है, जिसमें सवेदी से अवेदी होता है, सकषायी से वीतरागी, ये दोनों गुण प्रगट होते है। 390. क्षपक श्रेणी “मोहनीय कर्म” को सम्पूर्ण रुप से जलाकर क्षय कर देती है। तेरहवें गुणस्थान तक पहुँचाती है। 391. जिसके मोहनीय कर्म क्षय हो गया, वही पूर्ण शुद्ध महान स्नातक व स्व-रमणता को प्राप्त हो जाता है। (मोक्षगामी आत्मा)
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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