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संथारा अमृत अमन
अनादि काल से चले आ रहे जन्म पर जन्म, मरण
पर मरण के अनंतानंत सर्व दुःखों का अंत कराने संथारा साधना : संथारा आराधना : संथारा सिद्धि
वाले ‘संथारे' की महत्ता को समझ कर कौन महाआत्माऋद्धि : संथारा त्रिलोक प्रसिद्धि
बुद्धिमान आत्मा इसकी चाह न करेगी? __पूर्व काल में हो चुके अनंतानंत सभी तीर्थंकर
कितने ही लोग विचार करते है कि 'संथारा' भगवंतो ने अपने अपने केवल ज्ञान से जानकर
आत्म हत्या है । नहीं!नहीं! ऐसा विचार करना एकसमान रूप से 'संथारे को आत्मा की अति
महा अज्ञानता व मति की महामंदता ही है, 'संथारा' उच्च साधना व आराधना फरमाया है । वर्तमान में
तो मनुष्य को देव व भगवान बना देने वाली एक 'संथारे का श्रेष्ठ ज्ञान जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं' तीर्थंकर भगवान महावीर द्वारा कथित
अति श्रेष्ठ साधना है, जिससे आत्मा चन्द्र के समान
शीतल, सूर्य के समान प्रकाशमान, सागर के समान गणधर भगवंतों द्वारा गुंथित 'आचारांग सूत्र भगवान' से लेकर विपाक सूत्र भगवान तक ग्यारह अंग
गंभीर, गुण रत्नों की खान बन जाती है । जिस शास्त्रों में उपलब्ध है । पश्चात में हुए अनेक आचार्यों
सुख की कोई उपमा नहीं, उस अव्याबाध सुख, व ज्ञानी महात्माओं ने भी इस पर बहुत कुछ वर्णन
परम आत्मिक सच्चे सुख, को प्राप्त कर लेती है । किया है। आलोचना प्रतिक्रमण रहित नहीं, आलोचना
जबकि 'आत्म हत्या' मनुष्य को नरक व तिर्यंच प्रतिक्रमण सहित 'संथारा' सफल करने वाली
गति में फैंकने वाली है, एक भी सुख वाला जन्म आत्माएं, जन्म जन्म में प्राप्त होने वाले अग्नि में
प्राप्त करना तो दूर, दुखों से भरे जन्म मरण के जलना, शस्त्रों से छेदे भेदे जाना, भूख प्यास,
अति गहरे घोर भयंकर महासागर में डूबा देने भयंकर रोगों आदि के अनंतानंत सर्व घोर अति
वाली है, घोर अंधकार में फैंकने वाली है। आत्म घोर दुखों का शीघ्र ही अंत कर देती हैं | राजर्षि
हत्या में सर्व प्रथम मृत्यु की तीव्र इच्छा होती है व
तत्काल विष, अग्नि, फांसी आदि के प्रयोग से मृत्य उदायन आदि मुनियों के समान केवल ज्ञान प्राप्त कर सूर्य के समान प्रकाशित होकर सिद्ध भगवान
को प्राप्त किया जाता है जबकि संथारे में न जीवन बन जाती हैं, अथवा अपनी नरक व तिर्यंच गति का
की इच्छा की जाती है और न ही मरण की, समभाव अंत करके स्वयं अपनी इच्छा से अनेक प्रकार से
की साधना के साथ केवल मृत्यु का इंतजार किया सुन्दर अति सुन्दर रूप बनाने में समर्थ वैक्रिय जाता है। आत्महत्या क्रोध, मान, लोभ, तृष्णा, शरीर धारी देव बन जाती हैं व देव आयु पूर्ण होने
इच्छा, राग, द्वेष, मोह के वश होकर अत्यंत परिताप पर बहुत स्वर्ण रत्नों, जायदाद, विस्तृत परिवार,
भरे चित्त के साथ अपनी व दूसरों की हिंसा सहित मित्रों से युक्त, दृढ़ शरीर व बलवान तथा विनय
की जाती है जबकि संथारा इन सब दोषों से आदि अनेक उत्तम गुणों से युक्त मानव जन्म
रहित 'ज्ञान' के चिंतन सर्व पापों के त्याग, स्व प्राप्त करती हैं और इस पर भी फिर से तीर्थंकर
इच्छा से आहार के त्याग, देह की ममता के त्याग, भगवान का धर्म प्राप्त करके केवल ज्ञान प्राप्त कर
सर्व राग द्वेष इच्छा भय से रहित अति शांत चित्त के सिद्ध भगवान बन जाती है । अथवा, सुबाहु कुमार
साथ आत्मलीनता पूर्वक अपनी व दूसरों की दया के समान एक देव एक मानव का भव करते हुए से युक्त होकर, एक दिन अवश्य आने वाली मृत्यु सातवें मानव जन्म में अवश्य सिद्ध हो जाती हैं। । को समय आने पर, अपने अधीन की जाने वाली इस प्रकार 'संथारे' से बढ़कर न तो कोई साधना है | एक सुन्दर साधना व मृत्यु की कला है, जो कि और न ही इसके समान सर्वोच्च कोई फल ही है। | तीर्थकर भगवान, गणधर भगवान, साधु साध्वी