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________________ 133. संयमी साधको के पास सीमित मात्रा में ही | 146. ऊँच गोत्र (पुण्य रुप) का बंध आठ प्रकार अन्न पाणी आदि होता है सिर्फ जीवन के से होता है। निवारणार्थ साधन होने से वे साधक संवर, 147. पुण्योदय व पुरुषार्थ दोनों का अर्थ अलगनिर्जरा प्रधान जीवन जीते है, पुण्य के अलग होते है। बजाय उनका लक्ष्य निर्जरा रहता है। 148. पुण्य फल (शुभ) जब जीव के उदय में 134. भोगों का त्याग ही साधना है, पाप भाव के आता है, उसे 'पुण्योदय' कहते है। साथ पुण्य-भोग से पाप का ही बंध होता है। 149. पुण्योदय के समय 'आत्मा' अगर पाप 135. जैसे पाँच इन्द्रिय परिपूर्णता का होना, संज्ञी भाव में है, तो भविष्य अंधकारमय होगा। जीवन साथ में होना, ये पुण्योदय ही है 150. गजसुकुमाल मुनि के सिर पर अंगारे जल परन्तु भोगों में इन्द्रियों एवम् मन को लगा लिया तो नरक-निगोद तैयार है। रहे थे, ये “पापोदय" था परन्तु “पापोदय" में भी धर्म भाव (कषाय त्याग भाव) में थे, 136. पुण्यवान जीव, यदि साधु-संतो के सत्संग “पाप भाव” में नहीं थे। में आना शुरु हो जाता है, तो ज्ञान से 151. पुण्योदय हो या अघाती कर्मो के अशुभोदय अपने जीवन को उच्चतम शिखर तक पहुँचा हो परन्तु पाप भाव में नहीं आना समझना सकता है। कि आत्मा की जीत हो रही है, तथा कर्मो 137. बिना पुण्योदय से जैन धर्म के मोक्ष मार्ग की हार हो रही है। की सम्पूर्ण आराधना नहीं हो सकती। 152. इन्द्रिय परिपूर्ण मिलना, शरीर निरोग रहना 138. पुण्य में धर्म चारित्र व्रत आना, मानो सोने आदि ये सब पुण्योदय है परन्तु शरीर और में सुगंध आने के समान है। इन्द्रियों से मात्र काम भोग टी.वी मनोरंजन 139. पुण्य के भोग के बजाय पुण्य का सदुपयोग पर्यटन इन्द्रिय सुखों के | भोग में डूब करना चाहिये। जाना ये पाप भाव है; ये पाप भाव आत्मा 140. पुण्योदय का ही दूसरा नाम 'भाग्योदय' है। को डुबोने वाले है, पर तारने वाले नहीं। 141. पुण्योदय का उत्कृष्ट रुप जिन नाम' का | 153. पुण्य का नाश हास्य कौतहल' से जल्दी उदय है। होता है। 142. शुभ कार्यों से पुण्य का बंध होता है। 154. धर्म भाव (पाप भावों का त्याग) होने पर पुराने पाप का क्षय होता है तथा नये पुण्य 143. साता वेदनीय (पुण्य रुप) 10 प्रकार से का बंध होता है। बांधा जाता है। 155. संगम ग्वाले ने मुनि को खीर बहोराई, अखूट 144. देवायु व मनुष्यायु चार-चार प्रकार से बांधा पुण्य तो बंध हुआ तथा संयमी को साता जाता है। पहुँचाने से जल्दी से जल्दी संयम भावना 145. नाम कर्म की पुण्य रुप 38 प्रकृतियों का । आई। चार प्रकार से बंध होता है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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