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________________ 156. मेरु-प्रभ हाथी ने खरगोश के प्राणों की रक्षा | 169. पाप अर्थात चारित्र प्रतिबंधक मोहनीय में अनुकंपा भावों से अखूट पुण्य का बंध कर्म । बांधा तथा अगले ही भव में (मेघ 170. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तराय के कुमार)संयमी बना। उदय में (ही) पाप कर्म का सेवन होता है। 157. जीवों को आवश्यकता है धर्म की (श्रद्धा व 171. पाप अर्थात संसारावर्णव परिभ्रमण है। चारित्र)। उस धर्म को करने के लिए संज्ञी (मन) सहित इन्द्रियें मिलना बहुत जरुरी 172. अष्टादशविधं पापम् । पाप के 18 प्रकार है, उसके बिना (पुण्योदय) धर्म की आराधना होते है। ही नहीं की जा सकती। 173. “प्राणातिपात मृषावादादतो ऽऽ दान मैथुन 158. पुण्य में अटके नहीं (भटके नहीं), बाद में परिग्रह क्रोध मान माया लोभ प्रेम द्वेष ' भी छोड़ना है, तो धर्म करने के लिए पुण्य कलहाभ्याख्यान पैशुन्य परपरिवाद रत्यारति का सदुपयोग करें। माया मृषा मिथ्यादर्शनशल्याऽऽऽख्यमिति। 159. पाप अर्थात ‘पांसयति मलिन यति जीव 174. पाप आयतन के 9 भेद बताए है। प्रथम मिति' पापम्। एक से नव तक आयतन कहा है। 160. पाप अर्थात पातयति, (गिराता है) नरकादि 175. पापों को छोड़ने को प्रवर्ध्या (संयम) याहे को देवे वो पापः। प्रवर्जन पापेभ्यः प्रकर्षण। 161. पाप अर्थात आनंद रसं शोषयति इति पापः।। 176. प्राणातिपात - प्राणी प्राण वियोजने इति 162: पाप अर्थात असदनुष्ठाना पादिते कर्मणि प्राणातिपात जीव वधे। जीव के प्राणों को इति पापः। प्राणी से अलग करने को प्राणातिपात कहते है। हिंसा से निवृत होने को प्राणातिपात 163. पाप अर्थात सावद्य योग। सावर्ण्य अर्थात् विरत कहते है, प्राणातिपात को हिंसा आदि छोड़ने योग्य होते है। अनेक नामों से पुकारा जाता है। 164. पाप अर्थात हिंसा मृषा आदि कर्म (अशुभे 177. दशा विद्याः प्राणा विद्यते येषा ते प्राणिनः कर्माणि) (प्राणी) 165. पाप के छः प्रकार यथा 1. नाम 2. स्थापना 178. जैसे मेरे प्राण मुझे प्रिय है, वैसे ही सभी 3. द्रव्य 4. क्षेत्र 5. काल 6. भाव । प्राणियों को अपने प्राण प्रिय है, ऐसे कर्मो 166. आगम निषिद्ध कर्म को पाप कहते है। से तो जीव को बचना ही चाहिए, जिनसे 167. हिंसा आदि पांच कर्म को पाप कहा है। प्राणों की हिंसा होती है। 168. पावं कऊण सयं, अप्पाणं सुमेव वव हरई | 179. सब्वे जीवा सुहसाया दुक्ख पडिकुला। सभी दुगुणं करेई पावं, बीयं बालस्स मंदतं ।। संसारी जीवों को अपने प्राणों से सुखसाता (सूयगडांग सूत्र से) लगती है तथा दुःख प्रतिकूल लगता है।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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